उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
पटरी के मोड़
पर रेखा गाड़ी की ओट हो गयी थी; भुवन अपना हाथ देखता रह गया था। तभी एक
चिड़चिड़े स्वर ने उसे वापस, ठोस धरती पर ला गिराया था।
क्षितिज
में फीका-सा रंग भरने लगा था; सप्ताह-भर की घटनाओं का - यदि घटना उन्हें
कहा जा सकता है - पर्यवलोकन करके भुवन फिर वहीं-का-वहीं आ गया था। तथ्य और
सत्य - सत्य वह तथ्य है जिससे रागात्मक लगाव - उँह, सब बातें हैं, तथ्य कि
सत्य यह कि फाफामऊ स्टेशन आ रहा है, आगे गंगा है जिसका पाट इस धुँधली
रोशनी में मुकुर-सा चमकता होगा - गंगा, प्रयाग की गंगा...।
भुवन ने
एक लम्बी साँस ली, फिर अपनी चढ़ी हुई आस्तीनें नीचे उतार ली, चाहे
हल्की-सी ठंड से बचने के लिए, चाहे कुहनी पर की छाप को छिपा या मिटा देने
के लिए। खड़े होकर उसने एक अंगड़ाई ली। इलाहाबाद वह नहीं ठहरेगा; वापस चला
जाएगा; छुट्टी के दो-चार दिन बाकी हैं तो क्या हुआ।
या कि और
कहीं हो आए - बनारस, सारनाथ-मथुरा-आगरा-दिल्ली; दिल्ली में कई मित्र हैं,
गौरा के माता-पिता हैं, उसके प्रोफ़ेसर भी आज-कल हैं।
नहीं, क्या होगा कहीं जाकर, इलाहाबाद से सीधे वापस, अपनी छोटी-सी जगह
अच्छी है, कुछ पढ़ना-लिखना होगा।
'अकेले हैं न, तभी लीक पकड़ कर चलते हैं।”
गड़गड़ाहट - यह गंगा का पुल आ गया। दूर कहीं पर अभी दीखते होंगे धुँधले-से
भोर के दीप?
एक दिगन्तस्पर्शी प्रवाह, उसमें छोटे-छोटे द्वीप-मानो तैरते द्वीप-और एक
बड़ी, अँधेरी, रवहीन तरंग - नहीं, नहीं, नहीं!
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