उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
चन्द्रमाधव : भाग 1
1
स्टेशन
से चन्द्रमाधव की घर जाने की इच्छा नहीं हुई। हजरतगंज़ की सड़क पर टहला जा
सकता था, और रात के दस बजे यहाँ चहल-कदमी करते नजर आना बुरा नहीं है, उससे
प्रतिष्ठा बढ़ती ही है - पर अकेले टहलना चन्द्र की समझ में कभी नहीं
आया-कोई बात है भला! अकेले वे टहलते हैं जो किसी की ताक में रहते हैं -
बल्कि वे भी अकेले नहीं टहलते, जैसे कि जिनकी ताक में वे डोलते हैं, वे भी
अकेली कम ही नजर आती हैं। अकेले टहलते हैं पागल या कवि, जो असल में पागल
ही होते हैं पर रेस्पेक्टेवल होने के लिए जीनियस का ढोंग रचते हैं। शब्दों
पर अधिकार-रचना-हुँह; वह अधिकार तो पत्रकार का है, वही असल रचयिता है,
स्रष्टा है। कुछ बात लेकर बात बनाना भी कोई बात है भला? कला वह जो न-कुछ
को लेकर खड़ा कर दे, सनसनी फैला दे, दंगे-बलवे-इनक़लाब करवा दे! कभी किसी
कवि ने, कलाकार ने इनक़लाब नहीं कराया, जर्नलिस्ट ही अपनी मुट्ठी में
इनक़लाब लिए फिरता है। चन्द्र ने मन-ही-मन जरा सुर से कहा, “मैं मुट्ठी
में इनक़लाब लिए फिरता हूँ, आँखों-आँखों में ख्वाब लिए फिरता हूँ” और फिर
अवज्ञा से अपने को ही मुँह बिचका दिया। फिर उसने सोचा, मैं बराबर ही अपने
को ही मुँह बिचकाता आता हूँ - दुनिया मेरे बनाये या चाहे ढंग से नहीं चलती
तो दुनिया मुझे मुँह बिचका कर चली जाती है, मैं भला क्यों अपने को मुँह
बिचकाता हूँ? उसने ज़ेब टटोला, हाँ सिगरेट थे अभी; एक सिगरेट सुलगा कर
लम्बा कश खींचा, मुँह गोल कर धुएँ की पिचकारी छोड़ी - यह धुआँ अगर वैसा ही
जमा-का-जमा तीर-सा जाता, हवा को छेद देता, तो उसे कुछ सन्तोष होता; पर वह
बिखर गया, कमबख्त उड़ कर उसी की आँखों में आ कर चुभने लगा। चन्द्र ने
रिक्शावाले से कहा, “सिनेमा ले चलो।” “कौन से सिनेमा, हुजूर? मेफेयर?”
“हाँ।” चन्द्रमाधव बिना सोचे कह गया।
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