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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


14

गौरा को एक पार्सल मिला।

उसमें रेखा का एक पत्र था, और एक छोटी-सी डिबिया; डिबिया उसने खोली, उसमें एक अँगूठी थी। गौरा ने अँगूठी पहचान ली, कुछ चकित-सी वह पत्र पढ़ने लगी :

गौरा,
यह मैं उसी दिन तुम्हें दे ही देती, पर तुमने कहा था कि मैं इसे तुम्हारी ओर से रख छोड़ूँ, तुम फिर कभी माँग लोगी। मैं अधिक आग्रह नहीं कर सकी थी - तुम ने पूछा था कि माँ ने यह मुझे कब दी थी, और उससे मुझे बहुत-सी बातें याद आ गयी थीं जिन्हें मैं याद नहीं करती और जिन की प्रतिध्वनियों से भरा हुआ मन लेकर नहीं देना चाहती थी...।

गौरा, तुम तो कभी माँगोगी नहीं, पर अब मैं स्वयं भेज रही हूँ; मुझे बार-बार तुम्हारी याद आती है और भीतर कुछ कहता है कि यह जो तुमने मेरे पास रखी कि फिर कभी भेज दूँ, वह इसी समय के लिए था। मेरा आशीर्वाद लो, गौरा, और मेरा स्नेह; माँ ने आशीर्वाद के साथ वह अँगूठी मुझे दी थी, मुझे आशीर्वाद नहीं फला अपनी अपात्रता के कारण (पर जीवन के प्रति अकृतज्ञ मैं नहीं हूँ, न कभी हूँगी, गौरा; और इसके लिए ऋणी हूँ तुम्हारे 'मास्टर साहब' की); पर तुम पात्र हो, और मैं गर्व करके यह भी कह जाऊँ कि मेरा आशीर्वाद भी अधिक सार्थक है, क्योंकि उसके पीछे वह है जो माँ ने नहीं जाना था...।

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