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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


गौरा, जीवन में आनन्द सब कुछ नहीं है, पर बहुत बड़ी चीज़ है; और है वह सुखों में नहीं; है वह मन की एक प्रवृत्ति। मैं बहुत लालची थी, मैंने एक साथ ही सारे तारों-भरे आकाश को बाँहों में घेर लेना चाहा था। तुम में अधिक धैर्य है। तुम आकाश की छत को छू सकोगी। और एक-एक तारा तुम्हारी एक-एक सीढ़ी होगी...जीवन की चरम एक्स्टैसी तुम जानो, गौरा; उसे जाने बिना व्यक्ति अधूरा है; पर यह फिर कहूँ : आनन्द अनुभूति में नहीं है, किसी अनुभूति में नहीं, आनन्द मन की एक प्रवृत्ति है, जो सभी अनुभूतियों के बीच में भी बनी रह सकती है।

तुम्हें सीख नहीं दे रही, गौरा; हर व्यक्ति एक अद्वितीय इकाई है, और हर कोई जीवन का अन्तिम दर्शन अपने जीवन में पाता है, किसी की सीख में नहीं। पर दूसरों के अनुभव वह खाद हो सकते हैं, जिससे अपने अनुभव की भूमि उर्वरा हो...।

उस समान आनन्द की कामना तुम्हारे लिए करती हूँ, गौरा - तुम्हारे लिए, और भुवन के लिए।

तुम्हारी
रेखा दीदी

गौरा ने अँगूठी हाथ में लेकर पत्र और डिबिया सँभाल कर रख दी, फिर अँगूठी को देखती हुई टहलने लगी। कटहला उसने कभी पहना नहीं था-और यही मानती आयी थी कि वह कुछ साँवले रंग पर सुहाता है। रेखा के हाथ पर वह अच्छा लगता था...एकाएक वह देख सकी : रेखा के दोनों हाथ वैसे बढ़े हुए जैसे उसे अँगूठी पहनाने के लिए दिल्ली में बढ़े थे - विशेष सुन्दर नहीं थे वे हाथ, पर अत्यन्त संवेदना-प्रवण, और अँगूठी बढ़ाये हुए उनकी वह मुद्रा स्वयं एक इतिहास थी...। गौरा ने अँगूठी पहन ली, और एक विचित्र भाव उसके मन में उमड़ आया। आलमारी तक जाकर उसने एक पुस्तक निकाली - वही पुस्तक जो भुवन उसे जाते वक़्त दे गया था - और वह कविता पढ़ने लगी जो भुवन अस्पताल की पहली भेंट के समय पढ़ रहा था - 'ए मैनिफ़ेस्टो'।

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