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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एण्ड एफ़्लुएंस-ऐडमिटेड!'

दो-चार पंक्तियाँ उसने और पढ़ीं, लेकिन फिर पहली पंक्ति की ओर लौट आयी - 'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एण्ड एफ़्लुएंस-ऐडमिटेड!' - एक नारी ने मुझे शक्ति और ऋद्धि दी है... मैं स्वीकार करता हूँ!

गौरा ठिठक गयी। भुवन चाहे जैसे वह पुस्तक पढ़ता रहा हो, अस्पताल में बैठे-बैठे उसका चाहे जो अर्थ लगाता रहा हो, लेकिन वह पंक्ति ठीक कहती है : एक नारी ने-नारी ने ही... सहसा वह कागज़ लेने के लिए बढ़ी : वह रेखा को पत्र लिखेगी और यह पुस्तक रेखा को भेज देगी। पत्र में क्या लिखेगी, उसके वाक्य अभी भी उसके मन में स्पष्ट तिरने लगे थे... ”तुम्हारी वह मूल्यवान भेंट लौटाऊँगी नहीं, रेखा दीदी; लौटायी तब भी नहीं थी। अँगूठी मैंने पहन ली है, तुम्हारे आशीर्वाद के आगे नत-मस्तक हूँ,-पात्रता की बात मैं नहीं जानती, पर आशीर्वाद के लिए पात्रता क्या, वह तो पात्रता के प्रश्न के परे जो स्नेह दिया जाता है वह है...। रेखा दीदी, भेंट के बदले में नहीं, अपने ट्रिब्यूट के रूप में एक चीज़ भेज रही हूँ। यह भुवन की पुस्तक है जो वह जाते समय मुझे दे गये हैं। मैंने उनसे पूछा नहीं, न पूछूँगी; वह अवश्य समझ सकेंगे। ..इस पुस्तक में एक कविता है, 'ए मैनिफ़ेस्टो' - इसी कविता के लिए यह पुस्तक उन्होंने मुझे दी थी - उसकी पहली पंक्ति है : 'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एंड एफ़्लुएंस - ऐडमिटेड!' मेरा विश्वास है कि इस पंक्ति को वह आप से छिपाना न चाहेंगे, न मैं ही चाहूँगी; वह आप ही की है और इसीलिए यह पुस्तक भी...। रेखा दीदी, मेरे पास दर्शन अभी कुछ नहीं है, एक आस्था है, और कुछ श्रद्धा, और सीखने की, सहने की, और यत्किंचित् दे सकने की लगन है; इनके और आपके स्नेह के सहारे मुझे लगता है कि मैं चारों ओर बहते अजस्र प्रवाह में खड़ी रह सकूँगी; एक नगण्य व्यक्तिपुंज, अस्तित्व का एक छोटा-सा द्वीप, लेकिन जो फूलना चाहता है, फूल झरा कर नदी के बहते जल को सुवासित कर देना चाहता है - फिर नदी चाहे जो करे, उन फूलों की गन्ध ही पहुँच जाय दूर, दूर, दूर...”

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