उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
भुवन की इच्छा हुई कि पत्र लिखे। पर वह बैठा
नहीं, उसे टालने के लिए इधर-उधर यन्त्रों को देखता हुआ घूमने लगा। पर
नहीं, कहीं कुछ करने को नहीं था। सहसा उसने एक यन्त्र के सामने पड़ी हुई
कापी निकाली, क्षण-भर उसके चार-खाने पन्नों को देखता रहा, फिर पेन्सिल से
द्रुत गति से उन्हें रंगने लगा।
गौरा,
फिर दो महीने से मैंने
तुम्हें पत्र नहीं लिखा। जहाँ हूँ, वहाँ पत्र भी अवास्तव लगते हैं-केवल मन
के भीतर जो है वही वास्तव लगता है। तुम ने एक बार शब्द को अधूरा बताया था
उच्चारण की मर्यादा के कारण; पर सभी कुछ अधूरा है जिसके साथ गोचर होने की
शर्त है - सम्पूर्ण वही है जो बिना इन्द्रियों के माध्यम के ज्ञात है...।
आज
भी पत्र लिखने लगा हूँ तो यथार्थता कुछ अधिक नहीं है, कदाचित् और भी कम
है, क्योंकि आज बिलकुल भरोसा नहीं है कि यह चिट्ठी डाक में पड़ेगी या
नहीं, कभी जाएगी या नहीं। फिर भी लिख रहा हूँ, यह एक तो मानव की सहज
प्रतिकूलता है; दूसरे इसका एक तात्कालिक कारण है। मुझे कुछ कहना है - कुछ
पूछना है। और जब पूछ लूँगा तब तुम यह भी जान लोगी कि दो महीने मैं चुप
क्यों रहा।
गौरा, मैं लौटकर आऊँगा या नहीं, क्या पता; कब आऊँगा
यह भी कौन जाने। पर अगर आया - आने के साथ यह 'अगर' न होता तो शायद अब भी
मैं यह पत्र न लिख पाता! - अगर आया तो क्या तुम मुझसे विवाह करोगी?
तुम्हें जानते हुए मैं जानता हूँ कि तुम स्वतन्त्र निर्णय करने के योग्य
होते हुए भी चाहोगी कि मैं तुम्हारे पिता से पूछूँ; वह मैं पूछूँगा जब
पूछने का समय होगा, अभी तुम्हीं से जानना चाहता हूँ कि उनसे पूछूँ भी या
नहीं...।
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