उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लिखते-लिखते भुवन रुक गया। गौरा के पिता का चित्र उसके
सामने आ गया, फिर मसूरी के घर का, फिर गौरा के साथ बिताये हुए उस एक
सप्ताह का, अपनी आत्मस्वीकृति का; क्षण-भर के लिए वह केशों का मेघ उसकी
आँखों के आगे छा गया, फिर उसमें झलकती हुई चीड़ की सुगन्धित आग : “गौरा,
यह आग तो तुम्हारी है”...वह फिर लिखने लग गया और भी द्रुत गति से;
चार-पाँच पृष्ठ लिखकर वह फिर रुका, पेंसिल घिसकर उसकी नोक निकाली, और उसे
हाथ में साधे हुए फिर चित्र देखने लगा।
व्यक्ति के सभी कर्मों का
बीज सभी दूसरे कर्मों में निहित है; कार्य-कारण-सम्बन्धों की खोज और उनका
निरूपण एक वैज्ञानिक समय है, नहीं तो सभी कार्य कारण हैं और उनकी यह
परस्परता व्यक्ति के जीवन-वृत्त में ही बँधी नहीं है, बाहर तक फैली है। सब
कुछ है, क्योंकि और सब कुछ है... फिर भी, हम लोग काल के बिन्दु चुनते हैं
जहाँ से घटनाओं का आरम्भ मानते हैं - वह भी एक ऐतिहासिक समय है...। गौरा
के प्रति उसके जो भाव हैं, जो भाव थे - क्या वे अलग हैं?
“समर्पण
है तो वह न बाँधता है, न अपने को बद्ध अनुभव करता है; केवल एक व्यापक
कृतज्ञता मन में भर जाती है कि तुम हो, कि मैं हूँ। एक-दूसरे को पहचानने
के बाद आश्चर्य यह नहीं है कि प्रेम है, कि हम प्यार करते हैं; आश्चर्य
यही है कि हम हैं; होना ही एक नये प्रकार का संयुक्त होना है। मैं पहले भी
था, अब भी हूँ; पर क्या दोनों 'होने' एक हैं? हाँ, पर नहीं...सोचता हूँ,
यह परिवर्तन कब से हुआ, तो नहीं जानता; लगता है कि जो हुआ, वह पहले भी था,
नहीं तो हुआ कैसे? पर वह परिवर्तन चेतना में कब आया, यह जानता हूँ...। तुम
कह सकती हो कब? तुम्हें अचम्भा होगा। एक वर्ष पहले, जब लम्बी चुप्पी के
बाद मैंने जावा से तुम्हें दो-तीन पत्र लिखे थे, तब जब मैं अस्वस्थ था और
तुम्हें 'होम-सिक' होने की बात लिखी थी... तभी मैंने जाना था कि मैं तुम
से भाग कर वहाँ गया था, तुम्हीं से; और यह जानकर आसपास फैली विशालता में
खो गया था और फिर मैंने जाना था कि वह विशालता भी तुम हो। तुमने मुझे घेर
लिया था, छिपा लिया था; और उसमें एक सान्त्वना थी, एक मरहम था...सहसा मुझे
लगा कि उसी विशालता के आगे हथियार डालकर - अपने सब कवच-बन्धन-रक्षण छोड़कर
मैं स्वस्थ हो जाऊँगा, मेरे क्षत भर जाएँगे...। मैं कहता हूँ तभी, पर
'तभी' का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि अगर मैं पहले नहीं जानता था, तो भागा
क्यों था? 'शब्द, शब्द, शब्द'-शब्द अधूरे हैं, सभी कुछ अधूरा है...और
इतिहास तो बिलकुल ही अधूरा है...।”
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