उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
फिर सहसा उसे याद आया, मेफेयर में तो वह आज ही मैटनी देख कर गया है; बोला,
“नहीं, मेफेयर तो हम दिन में गये थे। और कहीं ले चलो-”
रिक्शावाले ने कहा, “एल्फिन्स्टन में 'जवानी की रीत' लगा है-वहाँ जाइएगा?”
“अच्छा वहीं चलें।”
रिक्शावाला
बढ़ चला। धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाता वह पैडल फेंकता चला जा रहा था, उसकी गति
कुछ तेज हो गयी थी। चन्द्र ने सोचा, सिनेमा मैं जा रहा हूँ, मस्त यह हो
रहा है। इसी तरह लोग दूसरों के मजे में मस्त दिन काटते चले जाते हैं -
क्या ज़िन्दगी है! जैसे दूसरे के घर से सवेरे अस्त-व्यस्त निकली अलसाती
सुन्दरी को देखकर कोई खुश हो ले। उसका मुँह कड़वा हो आया - हुँह, सीला हुआ
सिगरेट है! उसने सिगरेट निकाल कर फेंक दिया, एक ओर झुक कर जोर से थूका।
पुराने
ज़माने में प्रतिनिधियों की मारफ़त शादी हो जाती थी - वह जहाँ खुद नहीं जा
सकता था प्रतिनिधि भेज देता था। क्या बेहूदगी है। प्रातिनिधिक शादी हो
सकती है तो प्रातिनिधिक सुहाग-रात! पर यहाँ भी तो राजा लोग अपनी रानियों
को नियोग के लिए भेजा करते थे ऋषियों के पास-वह भी तो प्रातिनिधिक...। उसे
असल में ऋषि होना चाहिए था - पुराने जमाने का; पर कमबख्त नये जमाने का
महन्त भी तो न हुआ - हो गया स्पेशल रेप्रेजेंटेटिव अख़बार का! जाट की
घोड़ी के बछेरे की तरह 'माँगा था नीचे, दे दिया ऊपर।' दुनिया में इतना कुछ
होता है, उसी के साथ कुछ नहीं होता; वह केवल खबरें पाता और देता है,
टिप्पणी करता है - टिप्पणी भी नहीं, दूसरों की टिप्पणियों का संग्रह करता
है।
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