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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


रेखा ने कहा, “बहुत अच्छी आदत है तुम्हारी। अच्छा उठो, घूमने चलना है, फिर काफ़ी पियेंगे। फिर मुझे ठिकाने तक छोड़ आना। और सर्दी है, कोट पहन लो।”

चन्द्र अनमना उठ खड़ा हुआ।

बाहर घूमते हुए उसे लगा, रेखा ने न केवल उसे क्षमा कर दिया है बल्कि उसके निकट भी आ गयी है। उसे अचम्भा भी नहीं हुआ, क्योंकि स्त्रियों में यह होता ही है, जब बहुत अधिक दुत्कार देती हैं तब भीतर द्रवित भी हो जाती हैं। रेखा लाख असाधारण हो, पर स्त्री तो है! उसका बुझा हुआ मन धीरे-धीरे खिलने लगा। उसने कहा, “रेखा जी, मेरे इन मूड्स का बुरा तो नहीं मानती?”

रेखा ने मानो किसी दूसरी विचार-तरंग में उत्तर दिया-बल्कि प्रश्न पूछा, “चन्द्र, तुम्हें अपना बचपन याद है?”

“हाँ तो; क्यों?”

“यों ही। अच्छे दिन होते हैं बचपन के।”

चन्द्र उसकी बात ठीक-ठीक नहीं समझा। “मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ, फिर आ सकते तो-आप को कभी लगता है कि फिर आ सकते तो कितना अच्छा होता?”

“स्त्रियाँ बड़ी व्यावहारिक होती हैं - यह किसी तरह नहीं भूल सकतीं कि बीते दिन फिर नहीं आते और असम्भव कभी माँगती नहीं। यों भी - मुझे निरन्तर बड़े होते चलना अच्छा लगता है।”

“बड़े होना-यानी बूढ़े होना; आप ऐसी बात कैसे कह सकती हैं?”

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