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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


“आप मेरी बात सोचती हैं?” चन्द्र को परितोष हुआ। “मैं तो समझता था कोई नहीं सोचता, इसीलिए मैं भी नहीं सोचता था। और सोचने को है भी क्या? पीछे देखता हूँ तो - लेकिन वह तो मैं आपको बता चुका हूँ। कभी सोचता हूँ कि अतीत के प्रति कोई बहुत बड़ी ग्रीवेंस होती तो वह भी कुछ बात होती - उसी की कड़वाहट एक सहारा हो जाती, एक उत्पीड़ित मसीहा की तरह मैं चल निकलता। बहुत से लोग इस उत्पीड़न के आक्रोश के सहारे ही जीते हैं - उसमें से बड़े-बड़े जीवन-सिद्धान्त भी निकालते हैं और दूसरों का उत्पीड़न करने का जस्टिफ़िकेशन भी। ग्रीवेंस मुझे क्या है-यही तो कि ग्रीवेंस के लायक भी कुछ नहीं मिला। वर्तमान जो है सो आप देख रही हैं - उसमें आप ही एक रोशनी हैं नहीं तो...और फिर भविष्य की बात मैं क्या सोचूँ? मैं तो ऐसा फेटलिस्ट हो गया हूँ कि सोचता हूँ, मेरा भविष्य और कोई बना दे तो बना दे - मेरे बस का नहीं।”

रेखा ने कहा, “मेरा वश होता और भविष्य बने-बनाये मिलते, तो मैं आप को एक ऐसा सुन्दर भविष्य ला देती कि बस। उसके चार पाये चार इन्द्रधनुष होते, और फूलों पर पड़ी हुई चाँदनी का उसका ऊपर होता, तितलियों के पंखों से रंग लेकर उसे रंगा जाता और....”

चन्द्र ने कुछ हँस कर कहा, “और उस चाँदनी की कुरसी पर जब मैं बैठता तो चारों इन्द्रधनुषों के बीच में चित हो जाता-क्योंकि चाँदनी किसका बोझ सह सकती है? पर, जोकिंग एपार्ट, रेखा जी, आप सचमुच मेरा भविष्य बना सकती हैं।”

“मैं?” रेखा ने अतिरिक्त सन्देह से कहा : उसने अनुभव किया कि बातचीत फिर एक कँटीले स्तर पर चल रही है।

“अन्धे क्या रास्ता दिखाएँगे? मैंने भविष्य मानना ही छोड़ दिया है। भविष्य है ही नहीं, एक निरन्तर विकासमान वर्तमान ही सब कुछ है। आपने कभी पानी के फव्वारे पर टिकी हुई गेंद देखी है? बस जीवन वैसा ही है, क्षणों की धारा पर उछलता हुआ - जब तक धारा है तब तक बिल्कुल सुरक्षित, सुस्थापित, नहीं तो पानी पर टिके होने से अधिक बेपाया क्या चीज़ होगी!”

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