उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
“रेखा जी,
आपकी कल्पना बड़ी सुन्दर है। लेकिन आप उस जीवन को अरक्षित समझें, है असल
में वह एक्स्टेसी का जीवन, और एक्स्टेसी क्षणिक भी हो तो ग्राह्य उस पर सौ
सेक्योर जीवन निछावर है।”
रेखा चुप रही। वह बात का रुख बिलकुल
बदल देना चाहती थी, पर चन्द्र को क्लेश भी नहीं पहुँचाना चाहती थी। चन्द्र
ने ही फिर कहा, “रेखा जी, आपकी कभी छुट्टियाँ नहीं होती?”
“क्यों?”
“अब की हों तो चलिए न, कहीं पहाड़ चला जाये? आप भी तो बहुत दिन से न गयी
होगीं?”
“गयी तो नहीं। पर अबकी बार शायद नौकरी पर ही जाना पड़ेगा-”
“कहाँ?”
“शायद मसूरी।”
“अरे
नहीं। वह भी कोई जगह है, इतना भीड़-भड़क्का! यों तो खैर अच्छी भी है, रौनक
रहती है, ऐसा भी क्या पहाड़ कि बिलकुल मनहूसियत छायी रहे - पर नहीं, दूर
किसी पहाड़ पर चलिए - हिमालय की भीतरी किसी शृंखला में - कुल्लू चलिए या
कालिम्पोंग या ऐसी किसी जगह।”
“मेरा जाना तो पराधीन है-”
“छुट्टी ले लीजिए न? नहीं तो फिर जाना ही क्या हुआ अगर अर्दली में ही रहना
पड़े तो।”
रेखा हँस दी, मानो टाल रही हो कि अभी तो जाने का कोई प्रश्न नहीं, जब
सम्भावना होगी तो देखा जाएगा।
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