उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
लेकिन ईस्टर की छुट्टियों में
भुवन के लखनऊ में बिताये हुए एक सप्ताह का ठीक वही असर हुआ, यह उसे नहीं
लगा। बल्कि उसे अचम्भा, निराशा-और कुछ खीझ भी हुई, कि न तो भुवन उतना
गब्बू ही साबित हुआ जितना वह जानता (और चाहता) था; और न उसकी उपस्थिति से
चन्द्र की ब्रिलियेंस का वह प्रभाव ही रेखा पर पड़ा जिसकी उसने आशा की थी।
जिस मुहावरे में सोचने का वह आदी था। उसमें भुवन उससे 'बाज़ी ले गया' था;
स्पष्ट ही रेखा उसकी बातों से प्रभावित हुई थी, और उसकी अप्रगल्भ गहराई के
प्रति एक सम्मान का भाव उसमें आ गया था - मानो अप्रगल्भता ही गहराई हो।
'तावदेव शोभते-', पर भुवन बोला तो काफी था, प्रभाव उसकी चुप्पी का नहीं
था...भुवन पढ़ता-वढ़ता रहता है, कोटेशन भी उसे बहुत याद हैं; और यह जो
बारीक-बारीक भेद करने की बात है, इसका प्रभाव भी शायद स्त्रियों पर बहुत
पड़ता है - वे खुद जो मोटी-मोटी व्यावहारिक बातें सोचती हैं। यों रेखा भी
सोचनेवाली है, पर एक बात यह भी है कि पुरुष की उदासीनता का अपना एक आकर्षण
होता है - खासकर उस स्त्री के लिए, जो बराबर पुरुषों का अटेंशन पाती रही
हो...। रेखा सुन्दर है-अपने यू.पी., पंजाब के स्टैंडर्ड से चाहे न हो,
जहाँ गोरा-चिट्टा होना ही रूप है, यों चाहे चीनी का खिलौना हो, या कि
रंगीन रोएँदार इल्ली जैसी तितली निकलने से पहले होती है - पर वैसे अत्यन्त
रूपवती है, और उसका रूप एक सप्राण, तेजोमय पर्सनेलिटी के प्रकाश से भीतर
से दीप्त है, भले ही एक कड़ा रिज़र्व उस प्रकाश को भी घेरे है - चन्द्र को
एक बड़ी सी चन्द्रकान्त मणि का ध्यान आता, जो बाहर चिकनी सफेद होती है,
अन्दर बिखरे से इन्द्रधनुष के रंग लिए, पर एकदम भीतर कहीं एक सुलगती आग का
लाल आलोक - और पत्थरों का 'पानी' देखा जाता है, पर चन्द्रकान्त में 'आग'
से ही उसका मोल आँका जाता है...और ऐसी मणि आज कई बरस से पारखी की खोज में
भटकती फिर रही है! तो क्या निरन्तर ही एडमायरर उसे न घेरे रहते होंगे? यही
वह देखता है, उसी के यहाँ रेखा को जिसने आते-जाते देखा है, उसके बारे में
पूछे बिना नहीं रह सका है; और जिसने पूछा है, उसकी मानो दीठ से ही टपकती
लार का लिसलिसापन वह अनुभव कर सका है...जब से रेखा उसके यहाँ आती-जाती है,
तब से उसके मित्र भी मानो बढ़ गये हैं। और काफ़ी हाउस में भी लोग 'हेलो'
करने आ जाते हैं, और काफ़ी पिलाने का आग्रह करते हैं...। और ऐसे में एक
आदमी आये जिसके लिए स्त्री और एक रासायनिक फार्मूला एक बराबर हैं, कि देखा
और हल कर के एक तरफ़ रख दिया।
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