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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्द्र ने आग्रह किया। “चलिए न। अच्छा, यही रहे कि अगर आप को छुट्टी हो तो चलेंगी।” फिर कुछ रुक कर, “चाहे और किसी को, जिसे आप चाहें ले चलिए। हाँ मेरा एक मित्र है, कालेज में पढ़ाता है, उसे मैं निमन्त्रित कर सकता हूँ। यों आपके टाइप तो नहीं है, किताबी जीव है, पर कम-से-कम न्यूसेंस नहीं होगा, और बात-चीत में कभी जोश में आ जाये तो दिलचस्प भी हो सकता है।”

रेखा ने कहा, “मैं भविष्य ही नहीं मानती, और आप भविष्य बाँधना चाहते हैं। देखा जाएगा।”

“तब तो आपके लिए वायदा कर देना और भी आसान होना चाहिए। न होगा तो न जाइएगा - पर जाने की बात रहे इसमें आपको क्या एतराज़ है? मैं सोच-सोच कर ही खुश हो लूँगा।”

रेखा ने कहना चाहा, “यही तो खतरा है,” पर सहसा कह नहीं सकी। बोली, “अच्छा, रहा।”

चन्द्र ने कहा, “मैं भुवन को निमन्त्रित भी कर देता हूँ - अबकी छुट्टी में आ जाये। होली-ईस्टर जो हो। आप भी आवेंगी न?”

“देखो-शायद-होली में छुट्टी तो होगी पर होली में कोई लखनऊ क्या आएगा।” चन्द्र ने उत्साह से अंग्रेजी में कहा, “इट्स ए डेट।”

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लेकिन चन्द्रमाधव ने भुवन को पत्र लिखने में लगभग एक महीने की देर कर दी थी। और जब लिखा था, तब रेखा का कोई उल्लेख नहीं किया था। वह जानता था कि किसी स्त्री से भेंट कराने की बात से ही भुवन बिदक जाएगा; फिर वह परिचय कराना ठीक चाहता ही था यह कहना भी कठिन है। भुवन से उसकी पुरानी मैत्री थी; ठीक है, पर मैत्री-मैत्री में भी फ़र्क होता है, और रेखा के साथ भुवन की बात वह कभी सोच ही न सकता अगर उसे यह ध्यान न आता कि वैसे शान्त-गम्भीर 'सूफियाना' तबीयत के आदमी की उपस्थिति शायद रेखा की दृष्टि से उपयोगी हो, नहीं तो अकेले चन्द्र के साथ तो वह पहाड़ कभी नहीं जा सकती...। दोनों का परिचय वह उतना ही चाहता था, जिससे रेखा की तसल्ली हो जाये, पर भुवन की मनहूसियत उस पर हावी न हो जाये!

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