उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
बाहर शब्द सुनाई दिया। “लो, चन्द्रमाधव भी आ गये। नाटकों के बारे में तो
इनसे पूछो-यह साहित्य और कला के विद्यार्थी हैं।”
“हलो, गौरा जी। क्या बात है, आपके अभिनय की क्या बात ठहरी? भुवन तो रात
सोये नहीं, आपकी दी हुई पुस्तकें पढ़ते रहे।”
गौरा
जल्दी चली गयी। चन्द्र ने कहा, “यार, अपनी इस विद्यार्थिन की कुछ बात तो
बताओ। लड़की तो तेज़ मालूम होती है, तुम्हारे साथ कैसे उलझ गयी?”
भुवन
ने गम्भीर होकर कहा, “हाँ, मैंने दो वर्ष उसे पढ़ाया था। अच्छी पास हुई
है। और उसमें जीवन है, जीवन की लालसा है-ऐसी जो उसे कई दिशाओं में अन्वेषण
की प्रेरणा देती है। पढ़ने में बहुत अच्छी है, लेकिन सोचता हूँ, आगे क्या?
तो खेद होता है कि हमारे देश में लड़की के लिए सिवाय मास्टरी के या इधर
कुछ-कुछ डाक्टरी के और कोई कैरियर ही खुला नहीं है। और ये दोनों गौरा के
लिए नहीं हैं। उसका व्यक्तित्व बहुत कोमल भी है, बहुत सम्पन्न भी, उसकी
अभिव्यक्ति इनमें नहीं है। वह कोई रचनात्मक एक्सप्रेशन चाहता है, न जाने
क्या।”
“क्यों? भारतीय नारी का जो सबसे पहला कैरियर है - गृहस्थी। वह तुम ठीक
नहीं समझते?”
“उसे बे-ठीक कैसे समझा जा सकता है? और एक प्रकार की रचनात्मक अभिव्यक्ति
उसमें भी हो सकती है, मैं मानता हूँ पर....”
“पर गौरा के लिए तुम वह ठीक नहीं समझते।”
“नहीं
यह नहीं, मैं समझता हूँ कि उस दृष्टि से तो वह आदमी बहुत भाग्यवान् होगा
जिसे गौरा जैसी पत्नी मिलेगी। पर सोच यह भी तो सकता हूँ कि उसे पाकर गौरा
भी भाग्यवती होगी या नहीं? और वैसा कौन होगा, यह सोच नहीं सकता।
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