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उपन्यास >> नदी के द्वीप

नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।


चन्द्र ने चिढ़ाते हुए कहा, “यह सोच गौरा पर छोड़ देना क्या उचित न होगा?”

“आफ़ कोर्स, आफ़ कोर्स।” भुवन थोड़ा-सा झेंप गया। “हर मामले में सलाह देते-देते कुछ आदत पड़ गयी है कि सब सवालों के जवाब पहले से सोच रखूँ?” वह हँस दिया।

“तो क्या यह सवाल जल्दी उठने वाला है?”

“अभी तो कोई लक्षण नहीं है। लेकिन क्या मालूम। लड़की जब हुई परायी थाती, तब कभी भी सौंपने का सवाल उठ सकता है; सौंप देने का नहीं तो कम-से-कम बद देने का तो ज़रूर।”

“हूँ।”

भुवन ने विषय बदलने को कहा, “सुनो, चन्द्र तुम तो नाटक-वाटक खेलते रहे हो; तुम क्यों नहीं उसे कुछ सलाह देते? 'राज्यश्री' या 'ध्रुवस्वामिनी' का एडैप्टेशन कर दो न।”

“अरे, हिन्दी! राम-राम। हिन्दी नाटक मैं नहीं छूने का।”

“यही तो मुश्किल है। कोई छूता नहीं, हर साल सब कालेज-वालेज अंग्रेजी नाटक खेलते हैं; हिन्दी में भी अंग्रेजी नाटक अनुवाद कर के।”

“सो तो होगा। वे खेले जा सकते हैं, खेलने के लिए लिखे जाते हैं। हिन्दी नाटक तो पढ़ना भी टार्चर है। एक तो ज़बान ही ऐसी होती है।”

“लेकिन तुम अगर रूसी के अंग्रेजी अनुवाद के हिन्दी अनुवाद की भाषा अपने अनुकूल बनाकर उसे खेल सकते हो, तो क्या सीधे हिन्दी की भाषा नहीं ठीक कर सकते?” कालेज में चन्द्रमाधव ने चेखोव के 'चेरी आर्चड' के अभिनय में भाग लिया था, उसी की ओर भुवन का इशारा था।

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