उपन्यास >> नदी के द्वीप नदी के द्वीपसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।
और
तब, सहसा, आकाश में एक तारा फूट आया था। तो गौरा के विवाह का प्रश्न उठा
है। आख़िर उठा ही...और वह आगे मार्ग नहीं देख पा रही है, और भुवन...हाँ,
भुवन उसे जानता है, बहुत निकट से जानता है। आज अगर गौरा जीवन के इतने बड़े
निर्णय के सामने उसकी राय पूछ रही है और उसी पर चल पड़ेगी, इतना बड़ा
दायित्व उस पर थोप रही है तो क्यों? क्योंकि उसने पहले देखा है जो भुवन को
पहले देखना चाहिए था : कि भुवन उसे, उसकी सम्भावनाओं को, उससे भी अच्छी
तरह पहचानता है।
और आकाश तारों से भर गया था। भुवन तटस्थ है, पर
गौरा के भविष्य में उसे गहरी दिलचस्पी है; वह क्या करती है या नहीं करती
है - उसका क्या होता है - यह भुवन के लिए अत्यन्त महत्त्व रखता
है...क्यों? क्योंकि वह उसकी भूतपूर्व शिष्या है? नहीं, यद्यपि हाँ, वह
भी-उस नाते वह किसी हद तक उसके भविष्य का उत्तरदायी है...पर मुख्यतया
इसलिए कि वह कुछ है जो जीवन से भुवन ने पाया है और जिसके सहारे उसने स्वयं
अपने को अधिक पाया है...सहसा उसका अन्तर गौरा के प्रति स्नेह ही नहीं, एक
अद्भुत कृतज्ञता से द्रवित हो आया। 'अच्छा अध्यापन वही है, जिसमें अध्यापक
भी सीखता जाये' इतना ही नहीं, वह स्थायी सम्बन्ध है जिसका आलोक भविष्य में
भी दोनों का मार्ग उज्ज्वल करता है...।
भुवन ने गौरा को लिखा :
गौरा,
तुम्हारा
पत्र मिला है। तुम्हारे स्नेह का दावा मुझ पर सदैव रहा है; पर इतनी दूर से
तुम सहसा बिना कारण बताये बुला भेजोगी, यह नहीं सोचा था। मेरे पत्र की
किसी बात का उत्तर तुमने नहीं दिया; और परीक्षा-फल तक नहीं सूचित किया -
क्या मैंने कभी कल्पना की थी कि तुम्हारा परीक्षा-फल रजिस्ट्रार को तार
देकर मँगाना पड़ेगा? पर तुम्हारे कारण न देने से ही शायद मैं कारण का
ठीक-ठीक अनुमान लगा सका हूँ। और तुम्हारे मौन से मुझे आलोक मिला है, शक्ति
मिली है - जिसके सहारे मैं दो-एक बातें लिखने बैठ गया हूँ जो कदाचित्
तुम्हारे कुछ काम आवें।
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