उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
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थोड़ी दूर चलकर अपूर्व ने सौजन्यतापूर्वक कहा, “आपका शरीर इतना अस्वस्थ और दुर्बल है कि इस हालत में और आगे चलने की जरूरत नहीं है। यही रास्ता तो सीधे जाकर बड़े रास्ते से मिल गया है। मैं चला जाऊंगा।”
तनिक मुस्कराकर डॉक्टर ने कहा, “जाने से ही क्या चला जाया जा सकता है अपूर्व बाबू! सांझ को यह रास्ता सीधा था। लेकिन रात को पठान-हब्शी इसे टेढ़ा बना देते हैं। चले चलिए।”
“यह लोग क्या करते हैं, मारपीट?”
डॉक्टर बोले, “अपनी शराब का खर्च दूसरे के कंधो पर लादने के लिए यह लोग ऐसा करते हैं। जैसे आपकी यह सोने की घड़ी है। इसके दूसरी जेब में जाते समय आपत्ति उठने की सम्भावना है। ठीक है न?”
अपूर्व घबराकार बोला, “लेकिन यह तो मेरे पिताजी की है।”
डॉक्टर बोले, “लेकिन यह बात तो वह लोग समझना ही नहीं चाहते। लेकिन आज उन्हें समझना ही होगा।”
“यानी?”
“यानी, आज इसके बदले किसी को शराब पीने की सुविधा न मिल सकेगी।”
अपूर्व ने शंकित स्वर में कहा, “न हो, चलिए। किसी दूसरे रास्ते से घूमकर चला जाए।”
डॉक्टर खिलखिलाकर हंस पड़े। उनकी हंसी स्त्रियों की तरह स्निग्ध कौतुक भरी थी। बोले, “घूमकर? इस आधी रात को? नहीं-नहीं, इसकी जरूरत नहीं है, चलिए।” यह कहकर उस जीर्ण हाथ से अपूर्व का दायां हाथ थाम लिया। दबाव पड़ते ही अपूर्व के वर्षों के जिमनास्टिक और क्रिकेट-हॉकी खेलने से पुष्ट हाथ की हड्डियां मरमरा उठीं।
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