| 
			 उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
  | 
        
		  
		  
		  
          
			 
			 286 पाठक हैं  | 
     ||||||||
हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व ने हंसने की कोशिश करके कहा, “तिवारी, ईश्वर की इच्छा न होने पर इसी तरह मुंह का ग्रास निकल जाता है। आओ, समझ लें कि हम लोग आज भी जहाज में ही हैं। चिउड़ा-मिठाई अब कुछ बची है। रात बीत ही जाएगी।” 
तिवारी ने सिर हिलाकर हुंकारी भरी और उस हांडी की ओर फिर एक बार हसरत भरी नजरों से देखकर चिउड़ा-मिठाई लेने के लिए उठ खड़ा हुआ। सौभाग्य से खाने-पीने के सामान का संदूक रसोईघर के कोने में रखा था। इसलिए ईसाई का पानी इसे अपवित्र नहीं कर पाया था। 
फलाहार जुटाते हुए तिवारी ने रसोईघर से कहा, “बाबू, यहां तो रहना हो नहीं सकेगा।” 
अपूर्व अन्यमनस्क भाव से बोला, “हां, लगता तो ऐसा ही है।” 
तिवारी उसके परिवार का पुराना नौकर है। आते समय उसका हाथ पकड़कर मां ने जो बातें समझाकर बताई थीं, उन्हीं को याद कर उद्विग्न स्वर में बोला, “नहीं बाबू, इस घर में अब एक दिन भी नहीं। क्रोध में आकर काम अच्छा नहीं हुआ। मैंने साहब को गालियां दी हैं।” 
अपूर्व ने कहा, “उसे गालियां न देकर मारना ठीक था।” 
तिवारी में अब क्रोध के स्थान पर सद्बुद्धि पैदा हो रही थी। हम लोग बंगाली हैं। 
अपूर्व मौन ही रहा। साहस पाकर तिवारी ने पूछा, “ऑफिस के दरबान जी से कहकर कल सवेरे ही क्या इस घर को छोड़ा नहीं जा सकता? मेरा तो विचार है कि छोड़ देना ठीक होगा।” 
अपूर्व ने कहा, “अच्छी बात है, देखा जाएगा।” दुर्जनों के प्रति उसे कोई शिकायत नहीं है। समय नष्ट न करके चुपचाप जगह छोड़ देना ही उसने उचित समझ लिया है। बोला, “अच्छी बात है, ऐसा ही होगा। तुम भोजन आदि का प्रबंध करो।” 
			
						
  | 
				|||||

 
i                 








			 