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			 उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“अभी करता हूं बाबू!” कहकर कुछ निश्चिंत होकर अपने काम में लग गया। 
लेकिन उसी की बातों का सूत्र पकड़कर, ऊपर वाले फिरंगी का दुर्व्यवहार याद कर अचानक अपूर्व का समूचा बदन क्रोध से जलने लगा। मन में विचार आया कि हम लोगों ने चुपचाप, बिना कुछ सोचे-समझे इसे सहन कर लेना ही अपना कर्त्तव्य समझ लिया है। इसीलिए दूसरों को चोट पहुंचाने का अधिकार स्वयं ही दृढ़ तथा उग्र हो उठा है। इसीलिए तो आज मेरा नौकर भी मुझको तुरंत भागकर आत्महत्या करने का उपदेश देने का साहस कर रहा है। तिवारी बेचारा रसोईघर में फलाहार ठीक कर रहा था। वह जान भी न सका। उसकी लाठी लेकर अपूर्व बिना आहट किए धीरे-धीरे बाहर निकला और सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गया। 
दूसरी मंजिल पर साहब के बंद द्वार को खटखटाना आरम्भ किया। कुछ देर बाद एक भयभीत नारी कंठ ने अंग्रेजी में कहा, “कौन है?” 
“मैं नीचे रहता हूं और उस आदमी को देखना चाहता हूं।” 
“क्यों?” 
“उसे दिखाना है कि उसने मेरा कितना नुकसान किया है।” 
“वह सो रहे हैं।” 
अपूर्व ने कठोर स्वर में कहा, “जगा दीजिए। यह सोने का समय नहीं है। रात को सोते समय मैं तंग करने नहीं आऊंगा। लेकिन इस समय उसके मुंह से उत्तर सुने बिना नहीं जाऊंगा।” 
लेकिन न तो द्वार ही खुला और न ही कोई उत्तर ही आया। दो-एक मिनट प्रतीक्षा करने के बाद अपूर्व ने फिर चिल्लाकर कहा, “मुझे जाना है, उसे बाहर भेजिए।” 
			
						
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