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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


सुमित्रा बोली, “भले ही बढ़े। अशांति और विप्लव का अर्थ विनाश नहीं होता अपूर्व बाबू! जो रुग्ण, जीर्ण और ग्रस्त है केवल वही सतर्कता से स्वयं को अलग रखना चाहता है। जिससे किसी भी ओर से उसके शरीर में धक्का न लगे। अगर समाज की ऐसी दशा हो गई हो तो एक प्रकार से एब कुछ समाप्त हो जाए तो क्या हानि है?”

अपूर्व ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। पलभर मौन रहकर सुमित्रा बोली, “ऋषि पुत्र की उपमा देकर लगता है मैंने आपके मन को चोट पहुंचाई है। लेकिन जो चोट लगने ही वाली थी उससे मैं आपको बचा भी कैसे सकती थी?”

अंतिम बात को समझते हुए अपूर्व बोला, “जगन्नाथ जी के मार्ग में खड़े होकर ईसाई मिशनरी के लोग यात्रियों को बहुत सताते हैं। इस पर भी उस लूले मास्टर जी को छोड़कर कोई प्रभु को नहीं पूजता। लूले से ही उन लोगों का काम चल जाता है। यही आश्चर्य की बात है।”

“संसार में आश्चर्य है। इसीलिए तो मनुष्य का बचना असम्भव नहीं हो जाता अपूर्व बाबू! पेड़ की पत्ती का रंग सभी हरा नहीं देखते, इसे वह जानते भी नहीं। फिर भी लोग उसे हरा ही कहते हैं। क्या यह कम आश्चर्य की बात है? सतीत्व का मूल्य जान लेने से क्या....?”

जो व्यक्ति इतनी देर से चुपचाप बैठा लिख रहा था, उठ खड़ा हुआ। अन्य लोग भी उठ खड़े हुए।

अपूर्व ने देखा - गिरीश महापात्र।

भारती ने उसके कान में कहा, “यह ही हमारे डॉक्टर साहब हैं। उठकर खड़े हो जाइए।”

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