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उपन्यास >> पथ के दावेदार

पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710
आईएसबीएन :9781613014288

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


अपूर्व ने कहा, “किसी ने झूठ-मूठ कह दिया है। तुम्हारा देश तो म्लेच्छों का देश नहीं है। फिर भी जो मनमानी करना चाहते हैं उन्हें कोई रोक नहीं सकता।”

“मैंने तो इसी बैसाख में तेरा विवाह करने का निश्चय किया है।”

अपूर्व बोला, “एकदम निश्चय? अच्छी बात है। एक दो महीने बाद जब तुम बुलाओगी, मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करने आ जाऊंगा।”

करुणामयी बाहर से देखने में पुराने विचारों की अवश्य थी लेकिन बहुत ही बुद्धिमती थी। कुछ देर मौन रहकर बोली, “जब जाना ही है तो अपने भाइयों की सहमति भी ले लेना।”

यह कुल गोकुल दीधी के सुप्रसिद्ध बंद्योपाध्याय घराने में से है। वंश-परम्परा से ही वह लोग अत्यंत आचार परायण कहलाते हैं। बचपन से जो संस्कार उनके मन में जग गए थे - पति, पुत्रों ने जहां तक लांछित और अपमानित करना था किया, लेकिन अपूर्व के कारण वह सब कुछ सहन करती हुई इस घर में रह रही थी। आज वह भी उनकी आंखों से दूर अनजाने देश जा रहा है। इस बात को सोच-सोचकर उनके भय की सीमा नहीं रही। बोली, “अपूर्व मैं जितने दिन जीवित रहूं, मुझे दु:ख मत देना बेटे,” कहते-कहते उनकी आंखों से दो बूंद आंसू टपक पड़े।

अपूर्व की आंखें भी गीली हो उठीं। बोला, “मां, आज तुम इस लोक में हो लेकिन एक दिन जब स्वर्गवास की पुकार आएगी, उस दिन तुम्हें अपने अपूर्व को छोड़कर वहां जाना होगा। मेरे जाने के बाद तुम यहां बैठकर मेरे लिए आंसू मत बहाती रहना”, इतना कहकर वह दूसरी ओर चला गया।

उस दिन सांझ के समय, करुणामयी अपनी नियमित संध्या-पूजा आदि कार्यों में मन नहीं लगा सकीं। अपने बड़े बेटे के कमरे के दरवाजे पर चली गईं। विनोद कचहरी से लौटकर जलपान करने के बाद क्लब जाने की तैयारी कर रहा था। मां को देखकर एकदम चौंक पड़ा।

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