उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
करुणामयी ने कहा, “एक बात पूछने आई हूं, विनू!”
“कौन-सी बात मां?”
यहां आने से पहले मां अपनी आंखों के आंसू अच्छी तरह पोंछकर आई थी, लेकिन उनका रुंधा गला छिपा न रह सका। सारी घटना और अपूर्व के मासिक वेतन के बारे में बताने के बाद उन्होंने चिंतित स्वर में पूछा, “यही सोच रही हूं बेटा कि इन रुपयों के लोभ में उसे भेजूं या नहीं।”
विनोद धीरज खो बैठा। शुष्क स्वर में बोला, “मां, तुम्हारे अपूर्व जैसा लड़का भारतवर्ष में और दूसरा नहीं है। इस बात को हम सभी मानते हैं। लेकिन इस धरती पर रहकर इस बात को माने बिना भी नहीं रह सकते कि पहले चार सौ रुपए, फिर छ: महीने में दो सौ रुपए और - वह इस लड़के से बहुत बड़ा है।”
मां दु:खी होकर बोली, “लेकिन सुनती हूं कि वह तो एकदम म्लेच्छों का देश है।”
विनोद ने कहा, “तुम्हारा जानना-सुनना ही तो सारे संसार का अन्तिम सत्य नहीं हो सकता।”
पुत्र के अंतिम वाक्य से मां अत्यंत दु:खी होकर बोली, “बेटा! जब से समझदार हुई, इसी एक ही बात को सुन-सुनकर भी जब मुझे चेत नहीं हुआ तो इस उम्र में और शिक्षा मत दो। मैं यह जानने नहीं आई कि अपूर्व का मूल्य कितने रुपए है। मैं केवल यह जानने आई थी कि उसे इतनी दूर भेजना उचित होगा या नहीं।”
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