उपन्यास >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व ऊंची आवाज में बोला, “यह अपराध आपका है। मैं एक घंटे से बैठा हूं।”
बाबू बोला, “लेकिन मैं तो सिर्फ दस मिनट हुए यहां से गया हूं।”
अपूर्व ने उसके साथ झगड़ा किया। झूठा कहा, रिपोर्ट करने की धमकी दी। लेकिन फिर बेकार समझकर चुप हो गया। भूख, प्यास और क्रोध से जलता हुआ बड़े तारघर पहुंचा। वहां से अपने निर्विघ्न पहुंचने का समाचार जब मां को भेज दिया तब उसे संतोष हुआ।
दरबान ने विनय भरे स्वर में कहा, “साहब, हमको भी बहुत दूर जाना है।”
अपूर्व ने उसे छुट्टी देने में कोई आपत्ति नहीं की। दरबान के चले जाने के बाद घूमते-घूमते, गलियों का हिसाब करते-करते, अंत में मकान के सामने पहुंच गया।
उसने देखा - तिवारी महाराज एक मोटी लाठी पटक रहे हैं और न जाने क्या अंट-शंट बकते-झकते जा रहे हैं।
साथ ही एक-दूसरे व्यक्ति तिमंजिले से हिंदी और अंग्रेजी में इसका उत्तर भी दे रहे हैं और घोड़े के चाबुक से बीच-बीच में सट-सट का शब्द भी कर रहे हैं। तिवारी से नीचे उतरने को कह रहे हैं और वह उनको ऊपर बुला रहा है। शिष्टाचार के इस आदान-प्रदान में जिस भाषा का प्रयोग हो रहा है उसे न कहना ही उचित है।
अपूर्व ने सीढ़ी पर से तेजी से ऊपर चढ़कर तिवारी का लाठीवाला हाथ जोर से पकड़कर कहा, “क्या पागल हो गया है?” इतना कहकर उसे ठेलता हुआ घर के अंदर ले गया। अंदर आकर वह क्रोध, क्षोभ और दु:ख से रोते हुए बोला, “यह देखिए, उस हरामजादे ने क्या किया है।”
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