जीवनी/आत्मकथा >> रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथारामप्रसाद बिस्मिल
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प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बिस्मिल जी की आत्मकथा
असहयोग आन्दोलन में कार्यकर्त्ताओं की इतनी अधिक संख्या होने पर भी सबके सब शहर के प्लेटफार्मों पर लेक्चरबाजी करना ही अपना कर्त्तव्य समझते थे। ऐसे बहुत थोड़े कार्यकर्त्ता थे, जिन्होंने ग्रामों में कुछ कार्य किया। उनमें भी अधिकतर ऐसे थे, जो केवल हुल्लड़ कराने में ही देशोद्धार समझते थे ! परिणाम यह हुआ कि आन्दोलन में थोड़ी सी शिथिलता आते ही सब कार्य अस्त-व्यस्त हो गया। इसी कारण महामना देशबन्धु चितरंजनदास ने अन्तिम समय में ग्राम-संगठन ही अपने जीवन का ध्येय बनाया था। मेरे विचार से ग्राम संगठन की सबसे सुगम रीति यही हो सकती है कि युवकों में शहरी जीवन छोड़कर ग्रामीण जीवन के प्रति प्रीति उत्पन्न हो। जो युवक मिडिल, एण्ट्रेन्स, एफ० ए०, बी०ए० पास करने में हजारों रुपए नष्ट, करके दस, पन्द्रह, बीस या तीस रुपए की नौकरी के लिए ठोकरें खाते फिरते हैं उन्हें नौकरी का आसरा छोड़कर कई उद्योग जैसे बढ़ईगिरी, लुहारगिरी, दर्जी का काम, धोबी का काम, जूते बनाना, कपड़ा बुनना, मकान बनाना, राजगिरी इत्यादि सीख लेना चाहिए। यदि जरा साफ सुथरे रहना हो तो वैद्यक सीखें। किसी ग्राम या कस्बे में जाकर काम शुरू करें। उपरोक्तक कामों में कोई काम भी ऐसा नहीं है, जिसमें चार या पांच घण्टा मेहनत करके तीस रुपये मासिक की आय न हो जाए। ग्राम में लकड़ी या कपड़ों का मूल्य बहुत कम होता है और यदि किसी जमींदार की कृपा हो गई और एक सूखा हुआ वृक्ष कटवा दिया तो छः महीने के लिए ईंधन की छुट्टी हो गई। शुद्ध घी, दूध सस्ते दामों में मिल जाता है और स्वयं एक या दो गाय या भैंस पाल ली, तब तो आम के आम गुठलियों के दाम ही मिल गये। चारा सस्ता मिलता है। घी-दूध बाल बच्चे खाते ही हैं। कंडों का ईंधन होता है और यदि किसी की कृपा हो गई तो फसल पर एक या दो भुस की गाड़ी बिना मूल्य ही मिल जाती है। अधिकतर कामकाजियों को गांव में चारा, लकड़ी के लिए पैसा खर्च नहीं करना पड़ता। हजारों अच्छे-अच्छे ग्राम हैं जिनमें वैद्य, दर्जी, धोबी निवास ही नहीं करते। उन ग्रामों के लोगों को दस, बीस कोस दूर दौड़ना पड़ता है। वे इतने दुःखी होते हैं कि जिनका अनुमान करना कठिन है। विवाह आदि के अवसरों पर यथासमय कपड़े नहीं मिलते। काष्टाादिक औषधियां बड़े बड़े कस्बों में नहीं मिलतीं। यदि मामूली अत्तार बनकर ही कस्बे में बैठ जाएं, और दो-चार किताबें देख कर ही औषध दिया करें तो भी तीस-चालीस रुपये मासिक की आय तो कहीं गई ही नहीं। इस प्रकार उदर निर्वाह तथा परिवार का प्रबन्ध हो जाता है। ग्रामों की अधिक जनसंख्या से परिचय हो जाता है। परिचय ही नहीं, जिसका एक समय जरूरत पर काम निकल गया, वह आभारी हो जाता है। उसकी आंखें नीची रहती हैं। आवश्यकता पड़ने पर वह तुरन्त सहायक होता है। ग्राम में ऐसा कौन पुरुष है जिसका लुहार, बढ़ई, धोबी, दर्जी, कुम्हार या वैद्य से काम नहीं पड़ता? मेरा पूर्ण अनुभव है कि इन लोगों की भोले-भाले ग्रामवासी खुशामद करते रहते हैं।
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