उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, “मगर उनमें से अगर कोई कुछ प्रायश्चित करना चाहता है तो उसमें आप अड़ंगा न डालें!”
कुशारी लज्जित होकर खुद भी हँस दिए बोले, “अन्यमनस्क हो जाने से आपकी बात का मुझे खयाल ही नहीं रहा, पर अडंग़ा क्यों डालने लगा! सचमुच ही तो यह आप लोगों का कर्तव्य है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “हम लोग पूजा-अर्चना करती हैं, पर एक भी मन्त्र शायद शुद्ध नहीं बोल सकतीं,-लेकिन, यह भी आपका कर्तव्य है, सो भी याद दिलाए देती हूँ।”
कुशारी महाशय ने हँसते हुए कहा, “सो ही होगा माँ।” यह कहकर वे अबेर का खयाल करके उठ खड़े हुए। राजलक्ष्मी ने उन्हें जमीन से माथा टेककर प्रणाम किया और जाते समय मैंने भी किसी तरह एक नमस्कार करके छुट्टी पा ली।
उनके चले जाने पर राजलक्ष्मी ने कहा, “आज तुम्हें जरा सिदौसे नहा-खा लेना पड़ेगा।”
“क्यों भला?”
“दोपहर को सुनन्दा के घर चलना पड़ेगा।”
मैंने कुछ विस्मित होकर कहा, “मगर मुझे क्यों? तुम्हारा वाहन रतन तो है।”
राजलक्ष्मी ने माथा हिलाते हुए कहा, “उस वाहन से अब गुजर न होगी। तुम्हें बगैर साथ लिये अब मैं एक कदम भी कहीं को नहीं हिलने की।”
मैंने कहा, “अच्छा, सो ही सही।”
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