उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
पहले ही कह चुका हूँ कि एक दिन सुनन्दा ने मुझसे 'भइया' कह के पुकारा था, और उसे मैंने परम आत्मीय के समान अपने बहुत नजदीक पाया था। इसका पूरा विवरण यदि विस्तृत रूप से न भी दिया जाय तो भी उस पर विश्वास न करने को कोई कारण नहीं। मगर,
हमारे प्रथम परिचय के इतिहास पर विश्वास दिलाना शायद कठिन होगा। बहुत-से तो यह सोचेंगे कि यह बड़ी अद्भुत बात है; और शायद, बहुत से सिर हिलाकर कहेंगे कि ये सब बातें सिर्फ कहानियों में ही चल सकती हैं। वे कहेंगे, “हम भी बंगाली हैं, बंगाल में ही इतने बड़े हुए हैं, पर साधारण गृहस्थ-घर में ऐसा होता है, यह तो कभी नहीं देखा!” हो सकता है; परन्तु इसके उत्तर में मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि “मैं भी इसी देश में इतना बड़ा हुआ हूँ, और एक से ज्यादा सुनन्दा इस देश में मेरे भी देखने में नहीं आईं। फिर भी यह सत्य है।”
राजलक्ष्मी भीतर चली गयी, मैं उन लोगों की टूटी-फूटी दीवार के पास खड़ा होकर खोज रहा था कि कहीं जरा छाया मिले। इतने में एक सत्रह-अठारह साल का लड़का आकर बोला, “आइए, भीतर चलिए।”
“तर्कालंकारजी कहाँ हैं? आराम कर रहे होंगे शायद?”
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