उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
हाल सुनकर राजलक्ष्मी के नीचे से लेकर ऊपर तक आग-सी लग गयी। उसे मालती जैसे देखे न सुहाती थी, वैसे नवीन पर भी वह खुश न थी। मगर उसका सारा गुस्सा आकर पड़ा, मेरे ऊपर। क्रुद्ध कण्ठ से बोली, “तुमसे सौ-सौ बार कहा है कि इन नीचों के गन्दे झगड़ों में मत पड़ा करो। जाओ, अब सम्हालो जाकर, मैं कुछ नहीं जानती।” इतना कहकर वह और किसी तरफ बिना देखे जल्दी से भीतर चली गयी। कहती गयी कि “नवीन को फाँसी ही होनी चाहिए। और वह हरामजादी अगर मर गयी हो तो आफत चुकी!”
कुछ देर के लिए हम सभी लोग मानो जड़वत् हो रहे। फटकार खाकर मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि कल इतने ही वक्त मध्यस्थ होकर मैंने जो इनका फैसला कर दिया था, सो अच्छा नहीं किया। न करता तो शायद आज यह दुर्घटना न होती। परन्तु मेरा अभिप्राय तो अच्छा ही था। सोचा था कि प्रेमलीला का जो अदृश्य स्रोत भीतर-ही-भीतर प्रवाहित होकर सारे मुहल्ले को निरन्तर गँदला कर रहा है, उसे मुक्त कर देने से शायद अच्छा ही होगा। अब देखता हूँ कि मैंने गलती की थी। परन्तु इसके पहले सारी घटना को ज़रा विस्तार के साथ कह देने की जरूरत है। मालती नवीन डोम की स्त्री तो जरूर है, पर यहाँ आने के बाद से देखा है कि डोमों के मुहल्ले-भर में वह एक आग की चिनगारी-सी है। कब किस परिवार में वह आग लगा देगी, इस सन्देह से किसी भी स्त्री के मन में शान्ति नहीं। यह युवती देखने में जैसी सुन्दरी है, स्वभाव की भी उतनी ही चपल है। वह चमकीली बिंदी लगाती है, नींबू का तेल डालकर जूड़ा बाँधती है, चौड़ी काली किनारी की मिल की साड़ी पहिनती है, राह-घाट में उसका माथे का घूँघट खिसककर कन्धों तक उतर आता है- उसकी उसे कोई परवाह नहीं रहती। इस मुखरा अल्हड़ लड़की के मुँह के सामने किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ती, मगर पीछे-पीछे मुहल्ले की स्त्रियाँ उसके नाम के साथ जो विशेषण जोड़ा करती हैं उनका यहाँ उल्लेख नहीं किया जा सकता।
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