उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
परन्तु आज सुनन्दा के घर से लौटने पर सुना कि कल का फैसला कतई अच्छा नहीं हुआ। सद्य:-विधवा मालती पर से नवीन ने, अपना अधिकार पूर्णत: हटा लेने पर भी मार-पीट का अधिकार अब भी नहीं छोड़ा है। वह इस मुहल्ले से उस मुहल्ले में जाकर शायद सबेरे से ही छिपा हुआ बाट देख रहा होगा और अकेले में मौका पाते ही ऐसी दुर्घटना कर बैठा है। पर मालती कहाँ गयी?
सूर्य अस्त हो गया। पश्चिम के जंगल से मैदान की तरफ देखता हुआ सोच रहा था कि जहाँ तक सम्भव है, मालती पुलिस के डर के मारे कहीं छिप गयी होगी-मगर नवीन को जो उसने पकड़वा दिया, सो अच्छा ही किया।
राजलक्ष्मी संध्या-प्रदीप हाथ में लिये कमरे में आयी और कुछ देर ठिठककर खड़ी रही, पर कुछ बोली नहीं। चुपके से निकलकर बगल के कमरे की चौखट पर उसने पैर रखा ही था कि किसी एक भारी चीज के गिरने के शब्द के साथ-साथ वह अस्फुट चीत्कार कर उठी। दौड़कर पहुँचा, तो देखता हूँ कि एक बड़ी कपड़े की पोटली-सी दोनों हाथ बढ़ाकर उसके पैर पकड़े अपना सिर धुन रही है। राजलक्ष्मी के हाथ का दीआ गिर जाने पर भी जल रहा था, उठाकर देखते ही वही महीन सूत की चौड़ी काली किनारी की साड़ी दिखाई दी।
कहा, “यह तो मालती है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “अभागी कहीं की, शाम के वक्त मुझे छू दिया। ऐं! यह कैसी आफत है!”
दीआ के उजाले में गौर से देखा कि उसके माथे की चोट में से फिर खून गिर रहा है और राजलक्ष्मी के पैर लाल हुए जा रहे हैं, और साथ ही अभागिन का रोना मानो सहस्र धाराओं में फटा पड़ रहा है; कह रही है, “माँजी बचाओ मुझे-बचाओ-”
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