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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


राजलक्ष्मी ने कटु स्वर में कहा, “क्यों, अब तुझे और क्या हो गया?”

उसने रोते हुए कहा, “दरोगा कहता है कि कल सबेरे ही उसका चालान कर देगा- चालान होते ही पाँच साल की कैद हो जायेगी।”

मैंने कहा, “जैसा काम किया है वैसी सजा भी तो मिलनी चाहिए!”

राजलक्ष्मी ने कहा, “हो न जाने दे उसे कैद, इससे तुझे क्या?”

लड़की का रोना मानो जोर की आँधी की तरह एकाएक छाती फाड़कर निकल पड़ा। बोली, “बाबूजी कहते हैं तो उन्हें कहने दीजिए, पर माँजी ऐसी बात तुम मत कहो- उनके मुँह का कौर तक मैंने निकलवा लिया है।”

कहते-कहते वह फिर सिर धुनने लगी- बोली, “माँजी, अबकी बार तुम हम लोगों को बचा लो, फिर तो कहीं परदेश जाकर भीख माँगकर गुजर करूँगी, पर तुम्हें तंग न करूँगी। नहीं तो तुम्हारे ही ताल में डूब के मर जाऊँगी।”

सहसा राजलक्ष्मी की दोनों आँखों से आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदें टपकने लगीं; उसने धीरे से उसके बालों पर हाथ रखकर रुँधे हुए गले से कहा, “अच्छा, अच्छा, तू चुप रह- मैं देखती हूँ।”

सो उसी को देखना पड़ा। राजलक्ष्मी के बकस से दो सौ रुपये रात को कहाँ गायब हो गये, सो कहने की जरूरत नहीं; पर दूसरे दिन सबेरे से ही नवीन मण्डल या मालती दोनों में से किसी की भी फिर गंगामाटी में शकल देखने में नहीं आयी।

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