उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
बातें पहले की सी ही हैं पर ठीक वैसी नहीं हैं। वह सन्देह प्रश्रय का स्वर मानो अब नहीं बजता- बल्कि अब तो विरक्ति की एक कटुता बजा करती है जिसकी निगूढ़ झनझनाहट को, नौकर-चाकरों की तो बात ही छोड़ दो, मेरे सिवा भगवान के कान तक भी पकड़ने को समर्थ नहीं। इसी से भूख न लगने पर भी नौकर-चाकरों का मुँह देखकर मैं झटपट किसी तरह नहा-खाकर उन्हें छुट्टी दे देता था। मेरे इस अनुग्रह पर नौकर-चाकरों का आग्रह था या उपेक्षा सो तो वे ही जानें; पर राजलक्ष्मी को देखता कि दस-पन्द्रह मिनट के अन्दर ही वह घर से निकल जाया करती है। किसी दिन रतन और किसी दिन दरबान उसके साथ जाता और किसी दिन देखता कि आप अकेली ही चल दी है; इनमें से किसी के लिए ठहरे रहने की उसे फुरसत नहीं। पहले दो-चार दिन तक तो मुझसे साथ चलने के लिए आग्रह किया गया; परन्तु उन्हीं दो-चार दिनों में समझ में आ गया कि इससे किसी भी पक्ष को सुविधा न होगी। हुई भी नहीं। अतएव मैं अपने निराले कमरे में पुराने आलस्य में, और वह अपने धर्म-कर्म और मन्त्र-तन्त्र की नवीन उद्दीपना में, निमग्न हो क्रमश: मानो एक दूसरे से पृथक होने लगे।
मैं अपने खुले जंगले से देखा करता कि वह धूप से तपे हुए सूखे मैदान के रास्ते से जल्दी-जल्दी कदम रखती हुई मैदान पार हो रही है। इस बात को मैं समझता था कि अकेले पड़े-पड़े मेरा सारा दोपहर किस तरह कटता होगा, इस ओर ध्यान देने का उसे अवकाश नहीं है, फिर भी जितनी दूर तक आँखों से उसका अनुकरण किया जा सकता है, उतना किये बिना मुझसे न रहा जाता। टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों से उसकी विलीयमान देह-लता धीरे-धीरे दूरान्तराल में जाकर कब गायब हो जाती। कितने ही दिन तो उस समय तक को मेरी आँखें न पकड़ पातीं, मालूम होता कि उसका वह एकान्त सुपरिचित चलना मानो तब तक खत्म नहीं हुआ- मानो वह चलती ही जा रही है। सहसा चेतना होती तब शायद आँखें पोंछकर और एक बार अच्छी तरह देखकर फिर बिस्तर पर पड़ रहता। किसी-किसी दिन कर्महीनता की दु:सह क्लान्ति के कारण सो भी जाता-नहीं तो आँखें मींचकर चुपचाप पड़ा रहता। पास के कुछ भौंड़ी सूरत के बबूल के पेड़ों पर घुग्घू बोला करते और उनके साथ-ही-साथ स्वर मिलाकर मैदान की गरम हवा आसपास के डोमों के बाँस-झाड़ों में फँसकर ऐसी एक व्यथा-भरी दीर्घ निश्वास लेती रहती कि मुझे भ्रम हो जाता कि शायद वह मेरे हृदय में से ही निकल रही है। डर लगता कि शायद इस तरह अब ज्यादा दिन न सहा जायेगा।
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