उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उनके विषय में सभी ने सोचा कि जाने दो, जान बची। राजलक्ष्मी को ऐसे तुच्छ विषयों पर ध्यान देने की फुरसत न थी; वह दो ही चार दिन में सब भूल गयी; और याद भी करती तो क्या याद करती सो वही जाने। मगर इतना तो सभी ने सोच लिया कि मुहल्ले से एक पाप दूर हुआ, सिर्फ एक रतन ही खुश न हुआ। वह बुद्धिमान ठहरा, सहज में अपने मन की बात व्यक्त नहीं करता; पर उसके चेहरे को देखकर मालूम होता था कि इस बात को उसने कतई पसन्द नहीं किया। उसके हाथ से मध्यस्थ बनने और शासन करने का मौका निकल गया, और मालकिन के घर से रुपया भी गया- इतना बड़ा एक समारोह-काण्ड एक ही रात में न जाने कैसे और कहाँ होकर गायब हो गया, पता ही न लगा। कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि इससे उसने अपने को ही अपमानित समझा; और यहाँ तक कि वह अपने को आहत-सा समझने लगा। फिर भी वह चुप रहा। और घर की जो मालकिन थीं, उनका तो ध्यान ही और तरफ था। ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे, उन पर सुनन्दा का और उससे मन्त्र-तन्त्र की उच्चारण-शुद्धि सीखने का लोभ सवार होता गया। किसी भी दिन वहाँ जाने में उसका नागा न होता। वहाँ वह कितना धर्म-तत्व और ज्ञान प्राप्त किया करती थी, सो मैं कैसे जान सकता हूँ? मुझे सिर्फ उसका परिवर्तन मालूम पड़ रहा था। वह जैसा दुरत था वैसा ही अचिन्तनीय। दिन का खाना मेरा हमेशा से ही जरा देर से हुआ करता था। यह ठीक है कि राजलक्ष्मी बराबर आपत्ति ही करती आई हैं, कभी उसने अनुमोदन नहीं किया- परन्तु उस त्रुटि को दूर करने के लिए मैंने कभी रंचमात्र कोशिश नहीं की। मगर आजकल इत्तिफाक से अगर किसी दिन ज्यादा देर हो जाती, तो मैं खुद ही मन-ही-मन लज्जित हो जाता। राजलक्ष्मी कहती, “तुम कमजोर आदमी हो, इतनी देर क्यों कर लेते हो? अपने शरीर की तरफ नहीं देखते तो कम-से-कम नौकर-चाकरों की तरफ ही देख लेना चाहिए। तुम्हारे आलस से वे जो मारे जाते हैं!”
|