उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने गरदन हिलाकर कहा, “अच्छा।”
मगर वह वहाँ से उसी वक्त नहीं चला गया। कुछ देर चुपचाप खड़ा रहकर परम गम्भीरता के साथ बोला, “बाबूजी, यह रतन परमानिक¹ कब मरेगा, सिर्फ इतना ही मैं नहीं जानता!”
उसकी भूमिका से हम लोग परिचित थे, राजलक्ष्मी होती तो कहती, “जानता तो अच्छा होता, लेकिन बता क्या कहना चाहता है?” मैं सिर्फ मुँह उठाकर हँस दिया। मगर इससे रतन की गम्भीरता में जरा भी फर्क न आया; बोला, “माँजी से मैंने उस दिन कहा था न कि छोटी जात की बातों में न आइए, उनके आँसुओं से पिघलकर दो सौ रुपयों पर पानी मत फेरिए। कहिए, कहा था कि नहीं?” मुझे मालूम है कि उसने नहीं कहा। यह सदभिप्राय उसके मन में हो तो विचित्र नहीं, पर मुँह से कहने की हिम्मत उसे तो क्या, शायद मुझे भी न होती। मैंने कहा, “मामला क्या है रतन?”
रतन ने कहा, “मामला शुरू से जो जानता हूँ, वही है।”
मैंने कहा, “मगर मैं, जब कि अब भी नहीं जानता, तब जरा खुलासा ही बता दे।”
रतन ने खुलासा करके ही कहा। सब बातें सुनकर मेरे मन में क्या हुआ, सो बताना कठिन है। सिर्फ इतना याद है कि उसकी निष्ठुर कदर्यता और असीम वीभत्सता के भार से सम्पूर्ण चित्त एकबारगी तिक्त और विवश-सा हो गया। कैसे क्या हुआ, उसका विस्तृत इतिहास रतन अभी तक इकट्ठा नहीं कर पाया है, परन्तु जितना सत्य उसने छानकर निकाला है उससे मालूम हुआ कि नवीन मोड़ल फिलहाल जेल में सजा काट रहा है और मालती अपने बहनोई के उस छोटे भाई को जो बड़ा आदमी है, साथी बनाकर गंगामाटी में रहने के लिए कल अपने मायके लौट आई है। मालती को अगर अपनी आँखों से देखता तो शायद इस बात पर विश्वास करना ही कठिन हो जाता कि राजलक्ष्मी के रुपयों की सचमुच ही इस प्रकार सद्गति हुई है।
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