उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
उसी रात को मुझे खिलाते वक्त राजलक्ष्मी ने यह बात सुनी। सुनकर उसने आश्चर्य के साथ सिर्फ इतना कहा, “कहता क्या है रतन, क्या यह सच्ची बात है? तब तो छुकड़िया ने उस दिन अच्छा तमाशा किया। रुपये तो यों ही गये ही- और बेवक्त मुझे नहला मारा सो अलग- यह क्या, तुम्हारा खाना हो गया क्या? इससे तो खाने बैठा ही न करो तो अच्छा।”
इन सब प्रश्नों के उत्तर देने की मैं कभी व्यर्थ कोशिश नहीं करता- आज भी चुप रहा। मगर, एक बात का मैंने अनुभव किया। आज नाना कारणों से मुझे बिल्कुल ही भूख न थी, प्राय: कुछ भी न खाया था- इसी से आज के कम खाने की ओर उसकी दृष्टि आकर्षित कर ली; नहीं तो, कुछ दिनों से जो मेरी खुराक, धीरे-धीरे घट रही थी; उस पर उसकी दृष्टि ही नहीं पड़ी थी। इससे पहले इस विषय में उसकी दृष्टि इतनी तीक्ष्ण थी कि मेरे खाने-पीने में यदि जरा-सी भी कमी-वेशी होती तो उसकी आशंका और शिकायतों की सीमा न रहती- परन्तु, आज, चाहे किसी भी कारण से हो, एक की उस श्येन-दृष्टि के धुँधली हो जाने से दूसरे की गम्भीर वेदना को भी सबके सामने हाय-तोबा करके लांछित कर डालूँ, ऐसा भी मैं नहीं। इसी से, उछ्वसित दीर्घ-निश्वास को दबाकर मैं बिना कुछ जवाब दिये चुपके से उठ खड़ा हुआ।
मेरे दिन एक ही भाव से शुरू होते हैं और एक ही भाव से खत्म होते हैं। न आनन्द है, न कुछ वैचित्रय है, साथ ही किसी विशेष दु:ख-कष्ट की शिकायत भी नहीं! शरीर मामूली तौर से अच्छा ही है।
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