उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
हालाँकि यह बात मैं नहीं कहता कि किसी बीमारी में, और कभी किसी ने वैसी सेवा करके मुझे नहीं बचाया; परन्तु आज बहुत दूर बैठा हुआ दोनों के प्रभेद का भी अनुभव कर रहा हूँ। दोनों की सेवा में, निर्भरता में, हृदय की अकपट शुभ कामना में, और तुम लोगों के निबिड़ स्नेह में गम्भीर एकता मौजूद है; किन्तु तुम्हारे अन्दर ऐसा एक स्वार्थ लेशहीन सुकोमल निर्लिप्त-भाव और ऐसा अनर्विचनीय वैराग्य था, जिसने सिर्फ सेवा करके ही अपने आपको रीता कर दिया है, मेरे आरोग्य में उसने अपना जरा-सा चिह्न रखने के लिए एक कदम भी कभी आगे नहीं बढ़ाया, तुम्हारी यही बात रह-रहकर मुझे याद आ रही है। सम्भव है कि अत्यन्त स्नेह मुझसे झिलता नहीं, इसलिए- अथवा यह भी सम्भव है कि स्नेह का जो रूप एक दिन तुम्हारी आँखों और मुखड़े पर देखा था, उसी के लिए-सम्पूर्ण चित्त उन्मुक्त हो गया है। फिर भी, तुम्हें और एक बार आँखों से बिना देखे ठीक तरह से कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।”
साहब की चिट्ठी भी खत्म कर डाली। एक बार सचमुच ही उन्होंने मेरा बड़ा उपकार किया था। इसके लिए उन्हें अनेक धन्यवाद दिए। प्रार्थना कुछ भी नहीं की, मगर एक लम्बे अरसे के बाद सहसा गले पड़कर चिट्ठी में इस तरह धन्यवाद देने का आडम्बर रचकर मैं अपने आप ही शरमाने लगा। पता लिखकर चिट्ठी लिफाफे में बन्द करते हुए देखा कि वक्त निकल गया। इतनी जल्दी करने पर भी चिट्ठियाँ डाक में नहीं डाली जा सकीं; पर इससे मन क्षुण्ण न होकर मानो शान्ति का अनुभव करने लगा। सोचने लगा, यह अच्छा ही हुआ कि कल फिर एक बार पढ़ लेने का समय मिल जायेगा।
रतन ने आकर जताया कि कुशारी-गृहिणी आई हैं, और लगभग साथ-ही-साथ उन्होंने भीतर प्रवेश भी किया। मैं जरा चंचल-सा हो उठा, बोला, “वे तो घर पर हैं नहीं, उनके लौटने में शायद शाम हो जायेगी।”
|