उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“सो मुझे मालूम है” कहते हुए उन्होंने जँगले के ऊपर से एक आसन उतारा और स्वयं ही उसे जमीन पर बिछाकर उस पर बैठ गयीं। कहने लगीं, “शाम ही क्यों, लौटने में करीब-करीब रात ही हो जाती होगी।”
लोगों के मुँह से सुना था कि धनाढ्य स्त्री होने से वे अत्यन्त दाम्भिक हैं। यों ही किसी के घर जाती-आती नहीं। इस घर के विषयों में भी उनका व्यवहार लगभग ऐसा ही है- कम-से-कम इतने दिनों से घनिष्ठता बढ़ाने के लिए कोई उत्सुकता प्रकट नहीं की गयी। इसके पहले सिर्फ दो बार और आई थीं। मालिकों का घर होने से एक बार वे खुद ही चली आई थीं और एक बार निमन्त्रण में आई थीं। परन्तु आज वे कैसे और क्यों सहसा अपने आप आ पहुँचीं, सो भी यह जानते हुए कि घर में कोई नहीं है- मैं कुछ सोच न सका।
वे आसन पर बैठकर बोलीं, “आजकल छोटी बहू के साथ तो एकदम एक आत्मा हो रही हैं।”
अनजान में उन्होंने मेरे व्यथा के स्थान पर ही चोट की, फिर भी मैंने धीरे से कहा, “हाँ, अकसर वहाँ जाया करती हैं।” उन्होंने कहा, “अकसर? नहीं, रोज-रोज! प्रत्येक दिन! मगर छोटी बहू भी कभी आपके घर आती है? एक दिन के लिए भी नहीं! मान्य का मान रक्खे ऐसी लड़की ही नहीं है सुनन्दा!” यह कहकर वे मेरे चेहरे की तरफ देखने लगीं। मैंने एक के नित्य जाने की बात ही सिर्फ सोची है, किन्तु दूसरे के आने की बात तो कभी मेरे मन में उठी तक नहीं; इसलिए उनकी बात से मुझे धक्का-सा लगा। मगर उसका उत्तर क्या देता? सिर्फ इतना ही समझ में आया कि इनके आने का उद्देश्य कुछ साफ हो गया और एक बार ऐसा भी मालूम हुआ कि झूठा संकोच और आँखों का लिहाज छोड़-छाड़कर कह दूँ कि “मैं अत्यन्त निरुपाय हूँ, इसलिए इस अक्षम व्यक्ति को शत्रु-पक्ष के विरुद्ध उत्तेजित करने से कोई लाभ नहीं।” कहने से, क्या होता सो नहीं जानता, परन्तु न कहने का नतीजा यह निकला कि सारा का सारा उत्ताप और उत्तेजना उनकी आँखों की पलकों पर प्रदीप्त हो उठी। और कब, किसके क्या हुआ था, और किस तरह वह सम्भव हुआ था, इसी की विस्तृत व्याख्या में वे अपने श्वशुर-कुल का दसेक साल का इतिहास लगभग रोजनामचे की तरह अनर्गल बकती चली गयीं।
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