उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
काम में लगी हुई अभया की शान्त प्रसन्न छवि मैं अपने हिये की आँखों से देख सकता हूँ। उसके पास ही निष्कलंक सोता हुआ बालक है। मानो हाल के खिले हुए कमल के समान शोभा और सम्पद से, गन्ध और मधु से, छलक रहा है। इस अमृत वस्तु की क्या जगत में सचमुच ही जरूरत न थी? मानव-समाज में मानव-शिशु का सम्मान नहीं, निमन्त्रण नहीं, स्थान नहीं, इसी से क्या घृणा भाव से उसको दूर कर देना होगा? कल्याण के धन को ही चिर-अकल्याण में निर्वासित कर देने की अपेक्षा मानव-हृदय का बड़ा धर्म क्या और है ही नहीं?
अभया को मैं पहचानता हूँ। इतना-भर पाने के लिए उसने अपने जीवन का कितना दिया है, सो और कोई न जाने, मैं तो जानता हूँ। हृदय की बर्बरता के साथ सिर्फ अश्रद्धा और उपहास करने से ही संसार में सब प्रश्नों का जवाब नहीं हो जाता। भोग! अत्यन्त स्थूल और लज्जाजनक देह का भोग! हो भी सकता है! अभया को धिक्कार देने की बात जरूर है!
बाहर की गरम हवा से मेरी आँखों के गरम आँसू पलक मारते ही सूख जाते। बर्मा से चले आने की बात याद आती। तब की बात जब कि रंगून में मौत के डर से भाई बहन को और लड़का बाप को भी ठौर न देता था, मृत्यु-उत्सव की उद्दण्ड मृत्यु-लीला शहर-भर में चालू थी- ऐसे समय जब मैं मृत्यु-दूत के कन्धों पर चढ़कर उसके घर जाकर उपस्थित हुआ, तब, नयी जमाई हुई घर-गृहस्थी की ममता ने तो उसे एक क्षण के लिए भी दुविधा में नहीं डाला। उस बात को सिर्फ मेरी आख्यायिका की कुछ पंक्तियाँ पढ़कर ही नहीं समझा जा सकता। मगर, मैं तो जानता हूँ कि वह क्या है! और भी बहुत ज्यादा जानता हूँ। मैं जानता हूँ, अभया के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। मृत्यु!- वह भी उसके आगे छोटी ही है। देह की भूख, यौवन की प्यास- इन सब पुराने और मामूली शब्दों से उस अभया का जवाब नहीं हो सकता। संसार में सिर्फ बाहरी घटनाओं को अगल-बगल लम्बी सजाकर उससे सभी हृदयों का पानी नहीं नापा जा सकता।
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