उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
वह रही उन बातों को लेकर और मेरे दिन कटने लगे इस तरह। कर्महीन, उद्देश्यहीन जीवन का दिवारम्भ होता है श्रान्ति में, और अवसान होता है अवसन्न ग्लानि में। अपनी आयु की अपने ही हाथ से प्रतिदिन हत्या करते चलने के सिवा मानो दुनिया में मेरे लिए और कोई काम ही नहीं है। रतन आकर बीच-बीच में हुक्का दे जाता है, समय होने पर चाय पहुँचा देता है- बोलता-चालता कुछ नहीं। मगर उसका मुँह देखने से मालूम होता है कि वह भी अब मुझे कृपा की दृष्टि से देखने लगा है। कभी सहसा आकर कहता, “बाबूजी, जँगला बन्द कर दीजिए, लू की लपट आती है।” मैं कह देता, “रहने दे।” मालूम होता, न जाने कितने लोगों के शरीर के स्पर्श और कितने अपरिचितों के तप्त श्वासों का मुझे हिस्सा मिल रहा है। हो सकता है कि मेरा वह बचपन का मित्र इन्द्रनाथ आज भी जिन्दा हो, और यह उष्ण वायु अभी तुरन्त ही उसे छूकर आई हो। सम्भव है कि वह भी मेरी ही तरह बहुत दिनों के बिछुड़े हुए अपने सुख-दु:ख के बाल्य साथी की याद करता हो। और हम दोनों की वह अन्नदा-जीजी! सोचता, शायद इतने दिनों में उसके समस्त दु:खों की समाप्ति हो गयी हो। कभी-कभी ऐसा मालूम होता कि इसी कोने में ही तो बर्मा देश है, हवा के लिए तो कोई रुकावट है नहीं, फिर कौन कह सकता है तक समुद्र पार होकर अभया का स्पर्श भी वह मेरे पास तक बहाती हुई नहीं ले आ रही है? अभया की बात याद आते ही कुछ ऐसा हो जाता है कि सहज में वह मेरे मन से निकलना ही नहीं चाहती। रोहिणी भइया शायद इस वक्त काम पर गये हैं और अभया अपने मकान का सदर दरवाजा बन्द करके सिलाई के काम में लगी हुई है। दिन में मेरी तरह वह सो नहीं सकती, शायद किसी बच्चे के लिए छोटी कँथड़ी, या उसकी तरह की किसी तकिये की खोल, या ऐसा ही कोई अपनी गृहस्थी का छोटा-मोटा काम कर रही है।
छाती के भीतर जैसे तीर-सा चुभ जाता। युग-युगान्तर से संचित संस्कार और युग-युगान्तर के भले-बुरे विचारों का अभिमान मेरे रक्त के अन्दर भी तो डोल-फिर रहा है- फिर कैसे मैं इसे निष्कपट भाव से 'दीर्घायु हो' कहकर आशीर्वाद दूँ! परन्तु, मन तो शरम और संकोच के मारे एकबारगी छोटा हुआ जाता है।
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