उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
सबेरे उठकर सुना कि बहुत तड़के ही राजलक्ष्मी नहा-धोकर रतन को साथ लेकर चली गयी है। और यह भी खबर मिली कि तीन दिन तक उसका घर आना न होगा। हुआ भी यही। वहाँ कोई विराट काण्ड हो रहा हो सो बात नहीं- पर हाँ, दस-पाँच ब्राह्मण सज्जनों का आवागमन हो रहा है, और कुछ-कुछ खाने-पीने का भी आयोजन हुआ है, इस बात का आभास मुझे यहीं बैठे-बैठे अपने जँगले में से मिल रहा था। कौन-सा व्रत है, उसका कैसा अनुष्ठान है, उसके सम्पन्न करने से स्वर्ग का मार्ग कितना सुगम होता है, यह मैं कुछ भी न जानता था, और जानने के लिए ऐसा कुछ कुतहूल भी न था। रतन रोज शाम के बाद आया करता और कहता, “आप एक बार भी गये नहीं बाबूजी?”
मैं पूछता, “इसकी क्या कोई जरूरत है?”
रतन कुछ मुसीबत में पड़ जाता। वह इस ढंग से जवाब देता- मेरा बिल्कु्ल न जाना लोगों की निगाह में कैसा लगता होगा! हो सकता है कि कोई समझ बैठे कि इसमें मेरी इच्छा नहीं है। कहा तो नहीं जा सकता?
नहीं, कहा कुछ भी नहीं जा सकता। मैं पूछता, “तुम्हारी मालकिन क्या कहती हैं?”
रतन कहता, “उनकी इच्छा तो आप जानते ही हैं, आप नहीं रहते हैं तो उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। लेकिन क्या करें, कोई पूछता है तो कह देती हैं, कमजोर शरीर है, इतनी दूर पैदल आने-जाने से तबीयत खराब होने का डर है। और आ के करेंगे ही क्या!”
मैंने कहा, “सो तो ठीक बात है। इसके अलावा तुम तो जानते हो रतन, कि इन सब पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, धर्म-कर्मों के बीच मैं बिल्कुल ही अशोभन-सा दिखाई देता हूँ। योग-यज्ञ के मामलों में मेरा जरा दूर-दूर ही रहना अच्छा है। ठीक है न?”
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