उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
रतन हाँ में हाँ मिलाता हुआ कहता, “सो तो ठीक है!” मगर मैं राजलक्ष्मी की तरफ से समझता था कि मेरी उपस्थिति वहाँ... किन्तु जाने दो उस बात को।
सहसा एक जबरदस्त खबर सुनने में आयी। मालकिन को आराम और सहूलियत पहुँचाने के बहाने गुमाश्ता काशीनाथ कुशारी महाशय सस्त्रीक वहाँ उपस्थित हुए हैं।
“कहता क्या है रतन, एकदम सस्त्रीक?”
“जी हाँ। सो भी बिना निमन्त्रण के।”
समझ गया कि भीतर-ही-भीतर राजलक्ष्मी का कोई कौशल चल रहा है। सहसा ऐसा भी मालूम हुआ कि शायद इसीलिए उसने अपने घर न करके दूसरों के घर यह इन्तजाम किया है।
रतन कहने लगा, “बड़ी बहू का विनू को गोद में लेकर रोना अगर आप देखते! छोटी बहू ने खुद अपने हाथ से उनके पाँव धो दिये, खाना नहीं चाहती थीं सो अपने हाथ से आसन बिछाकर छोटे बच्चों की तरह उन्हें स्वयं खिलाया बैठकर। माँजी की आँखों से आँसू गिरने लगे। यह हाल देखकर बूढ़े कुशारी महाराज तो फूट-फूटकर रोने लगे- मुझे तो ऐसा मालूम होता है बाबू, काम-काज खतम हो जाने पर छोटी बहू अब उस खण्डहर की ममता छोड़-छाड़कर अपने मकान में जाकर रहेगी। यह अगर हो गया तो गाँवभर के सभी लोग बड़े खुश होंगे। और यह करामात है अपनी माँजी की ही, सो मैं बताए देता हूँ बाबूजी।”
सुनन्दा को जहाँ तक मैंने पहिचाना है, उससे इतनी बड़ी आशा मैं न कर सका; परन्तु राजलक्ष्मी के ऊपर से मेरा बहुत-सा अभिमान, शरत के मेघाच्छन्न आकाश की भाँति, देखते-देखते हटकर न जाने कहाँ बिला गया और आँखों के सामने बिल्कुल स्वच्छ हो गया।
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