उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
ऐसा ही होता है। मैं जानता हूँ, निकट-भविष्य में ही फिर एक दिन मेरी बिदाई की घड़ी आ पहुँचेगी। उस दिन भी शायद वह उसी तरह नीरव ही बनी रहेगी, परन्तु मेरी उस अन्तिम बिदा की यात्रा में सम्पूर्ण मार्ग-व्यापी वह अभूतपूर्व निविड़ आह्नान शायद अब न सुनाई देगा।
मन-ही-मन सोचने लगा, “यह जो रहने का निमन्त्रण समाप्त हो जाना ही सिर्फ बाकी बच रहता है, सो कैसी व्यथा की वस्तु है! फिर भी, इस व्यथा का कोई भागीदार नहीं, सिर्फ मेरे ही हृदय में गढ़ा खोदकर इस निन्दित वेदना को हमेशा के लिए अकेला रहना होगा। राजलक्ष्मी से प्रेम करने का अधिकार संसार ने मुझे नहीं दिया; यह एकाग्र प्रेम, यह हँसना-रोना और मान-अभिमान यह त्याग, यह निविड़ मिलन- सब कुछ लोक-समाज की दृष्टि से जैसे व्यर्थ है। उसी तरह आपका मेरा यह आसन्न विच्छेद का असह्य अन्तर्दाह भी बाहर वालों की दृष्टि से अर्थहीन है।” आज यही बात मुझे सबसे ज्यादा चुभने लगी कि एक का मर्मान्तिक दु:ख जब कि दूसरे के लिए उपहास की वस्तु हो जाती है, तो इससे बढ़कर ट्रेजिडी संसार में और क्या हो सकती है? फिर भी, होता यही है। लोकसमाज में रहते हुए भी जिस आदमी ने लोकाचार को नहीं माना- विद्रोह किया है, वह फरियाद भी करे तो किससे? यह समस्या सनातन है, शाश्वत और प्राचीन है। सृष्टि के दिन से लेकर आज तक यह एक ही प्रश्न बार-बार घूमता हुआ चला आ रहा है, और भविष्य के गर्भ में भी जहाँ तक दृष्टि जाती है, इसका कोई समाधान दिखाई नहीं देता। यह अन्याय है-अवांछनीय है। तो भी, इतनी बड़ी सम्पदा- इतना बड़ा ऐश्वर्य, क्या मनुष्य के पास और कुछ है? अबाध्य नर-नारी के इस अवांछित हृदय वेग की न जाने कितनी नीरव वेदनाओं के इतिहास को बीच में रखकर युग-युग में कितने पुराणों, कितनी कथाओं और कितने काव्यों के अभ्रभेदी सौध खड़े किये गये हैं, कोई ठीक है!
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