उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
परन्तु आज अगर यह रुक जाय? मन-ही-मन कहा, जाने दो। राजलक्ष्मी की धर्म में रुचि हो, उसके वक्रेश्वर का मार्ग सुगम हो, उसका मन्त्रोच्चारण शुद्ध हो, आशीर्वाद करता हूँ कि उसका पुण्योपार्जन का मार्ग निरन्तर निर्विघ्न और निष्कण्टक होता जाय। अपने दु:ख का भार मैं अकेला ही ढोता रहूँगा।
दूसरे दिन नींद खुलने के साथ ही साथ ऐसा मालूम हुआ, मानो गंगामाटी के इस घर से, यहाँ के गली-कूचों और खुले मैदान से-सबसे मेरे सभी बन्धन एक साथ ही शिथिल हो गये हैं। राजलक्ष्मी कब लौटेगी, कोई ठीक नहीं, मगर मेरा मन ही अब एक क्षण भी यहाँ रहना नहीं चाहता। नहाने के लिए रतन ने ताकीद करना शुरू कर दिया। कारण, जाते समय राजलक्ष्मी सिर्फ कड़ा हुक्म देकर ही निश्चिन्त न हो सकी थी, रतन से उसने अपने पैर छुआकर सौगन्ध ले ली थी कि उसकी अनुपस्थिति में मेरी तरफ से जरा भी लापरवाही या अनियम न होने पायेगा। खाने का वक्त सबेरे ग्यारह बजे और रात को आठ बजे के भीतर तय हुआ है, और इसके लिए रतन को रोज घड़ी देखकर समय लिख रखना होगा। कह गयी है कि लौटने पर इसके लिए वह हर एक को एक-एक महीने की तनखा इनाम में देगी। मैं बिस्तर पर पड़ा-पड़ा ही जान रहा था कि रसोइया अपनी रसोई का काम खतम करके इधर-उधर डोल रहा है, और कुशारी महाशय सबेरा होते न होते नौकर के सिर पर साग-सब्जी, मछली, दूध वगैरह लादे स्वयं आ पहुँचे हैं। उत्सुकता अब किसी भी विषय में नहीं थी- अच्छी बात है, ग्यारह बजे और आठ बजे ही सही। मेरे कारण, एक महीने के अतिरिक्त वेतन से तुम लोग वंचित न होगे, यह निश्चित है।
कल रात को बिल्कुल ही नींद नहीं आई थी, शायद इसीलिए आज खा-पीकर बिस्तर पर पड़ते ही सो गया।
नींद खुली करीब चार बजे। कुछ दिनों से मैं नियमित रूप से घूमने निकल जाता था, आज भी हाथ-मुँह धोकर चाय पीकर निकल पड़ा।
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