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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


सोचा कि मेरी तकदीर ही ऐसी है। नहीं तो उसमें राजलक्ष्मी ही क्यों कर आती, और अभया ही मेरे जरिए अपने दु:ख का बोझ कैसे ढुआती? और यह मेंढक और उसके कुलियों का झुण्ड- और किसी व्यक्ति को तो यह सब झाड़-फेंकने में क्षण-भर की भी देर न लगती। तब फिर मैं ही क्यों जिन्दगी-भर ढोता फिरूँ?

तम्बू रेल-कम्पनी का है। सतीश की निजी सम्पत्ति की सूची मैंने मन-ही-मन बना ली। कुछ एनामेल के बर्तन, एक स्टोव्ह, एक लोहे की पेटी, एक चीड़ का बॉक्स, और उसके सोने की कैम्बीस की खाट- जिसने बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने से डांगी का रूप धारण कर लिया था। सतीश होशियार आदमी है, इस खाट के लिए बिस्तर की जरूरत नहीं पड़ती, कोई बिछौने जैसी चीज होने से ही काम चल जाता है, इसी से सिर्फ रंगीन दरी के सिवा उसने और कुछ नहीं खरीदा। भविष्य में हैजा होने की उसे कोई आशंका नहीं थी। कैम्बीस की खाट पर तीमारदारी करने में बहुत ही असुविधा मालूम हुई; और जो एकमात्र दरी थी, सो बहुत ही गन्दी हो चुकी थी, इसलिए उसे नीचे जमीन पर सुलाने के सिवा और कोई चारा ही नहीं था।

मैं यत्परोनास्ति चिन्तित हो उठा। उस लड़की का नाम था कालीदासी। मैंने उससे पूछा, “काली कहीं किसी से एक-दो बिछौने मिल सकते हैं?”

काली ने जवाब दिया, “नहीं।”

मैंने कहा, “थोड़ा-सा पयाल-अयाल ला सकती हो?”

काली ने चट से हँसकर जो कहा, उसका मतलब यह था कि यहाँ गाय-भैंसें थोड़े ही बँधी हैं!

मैंने कहा, “तो बाबू को सुलाऊँ किस पर?”

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