उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैं अकेला उस चीड़ के बॉक्स पर बैठा रहा। इधर सतीश के हाथ-पैर बार-बार ऐंठ रहे थे, सेंकने-तपाने की जरूरत थी। बहुत बुलाने-पुकारने पर काली की नींद टूटी, लेकिन उसने करवट बदलकर जताया कि लकड़ी-वकड़ी कुछ है नहीं, वह आग जलाए तो कैसे? खुद कोशिश करके देख सकता था, मगर प्रकाश के नाम पूँजी वही एक हरीकेन थी। फिर भी उसकी रसोई में जाकर देखा तो मालूम हुआ कि काली ने झूठ नहीं कहा। उस एक झोंपड़ी के सिवा वहाँ और कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जो जलाई जा सके। मगर साहस न हुआ कहीं प्राण निकलने से पहले ही उसका अग्नि संस्कार न कर बैठूँ! कैम्प-खाट और चीड़ का बॉक्स निकालकर उसी में दिया सलाई लगाकर आग जलाई, और अपना कुरता खोलकर उसकी पोटली-सी बना के, उससे कुछ-कुछ सेंक देने की कोशिश करता रहा, पर अपने को सान्त्वना देने के सिवा रोगी को उससे कुछ भी फायदा न पहुँच सका।
रात के दो बजे होंगे या तीन, खबर आई कि कुलियों को कै-दस्त शुरू हो गये हैं। उन लोगों ने मुझे डॉक्टर-साहब समझ लिया था। उन्हीं की बत्ती की सहायता से दवा-दारू लेकर कुली-लाइन तक पहुँचा। वे मालगाड़ी में रहते थे, छत नदारत, खुली गाड़ियाँ लाइन पर खड़ी हैं- मिट्टी खोदने की जरूरत पड़ने पर इंजन उन्हें गन्तव्य स्थान पर खींच ले जाता है और वहीं वे काम पर जाते हैं।
बाँस की नसैनी के सहारे गाड़ी पर चढ़ा। एक तरह वह बूढ़ा-सा आदमी पड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर बत्ती का प्रकाश पड़ते ही समझ गया कि उसका रोग आसान नहीं है, बहुत दूर आगे बढ़ गया है। और दूसरी ओर पाँच-सात आदमी थे, स्त्री और पुरुष दोनों। कोई सोते से उठ बैठा है तो किसी की नींद ज्यों की त्यों बनी हुई है।
इतने में उनका जमादार आ पहुँचा। वह बंगला भाषा अच्छी बोल लेता था। मैंने पूछा, “और एक रोगी कहाँ है?”
उसने अंधेरे की ओर अंगुली उठाकर दूसरा डिब्बा दिखाते हुए कहा, “वहाँ।”
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