उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
भारद्वाज चला गया, पर उसकी अमर-कीर्ति ताड़ी की दूकान ज्यों की त्यों अक्षय बनी है। शाम के वक्त क्या औरत और क्या मर्द, सभी कोई झुण्ड बाँधकर, ताड़ी पीकर घर लौटे। दोपहर का भात पानी में भिगोकर रख दिया गया था, लिहाजा औरतें रसोई बनाने के झंझट से भी फारिग थीं। अब भला कौन किसकी सुनता है? जमादार की गाड़ी से ढोल और मंजीरे के साथ संगीत-ध्वनि सुनाई देने लगी। कब तक वह खत्म होगी, सो मेरी समझ में न आया। और, किसी के लिए उन्हें कोई फिकर नहीं, जो सोचते-सोचते सिर में दर्द होने लगे। मेरे ठीक पास के ही एक डब्बे में एक औरत के शायद दो प्रणयी आ जुटे थे; रात-भर उनकी उद्दाम प्रेमलीला, बिना किसी विश्राम के, समान गति से चलती रही। इधर, इस डब्बे में एक हजरत कुछ ज्यादा चढ़ा गये थे; वह ऐसे ऊँचे शोरगुल के साथ अपनी स्त्री से प्रणय की भीख माँगने लगे कि मारे शरम के मैं गड़-गड़ गया। दूर के एक डब्बे में एक स्त्री रह-रहकर और कराह-कराह कर विलाप कर रही थी। उसकी माँ जब दवा लेने आई, तो पता लगा कि कामिनी के बच्चा होने वाला है। लज्जा नहीं, शरम नहीं, छिपाने लायक इनके यहाँ कहीं भी कुछ नहीं, सब खुला हुआ, सब अनढँका, अनावृत्त। जीवन-यात्रा की अबाध गति बीभत्स प्रकटता में अप्रतिहत वेग से चली जा रही है। सिर्फ मैं ही एक अलग था। मृत्युलोक के आसन्न यात्री माँ और उसके बच्चे को लिये इस गम्भीर अन्धकारमय रात्रि में अकेला बैठा हुआ हूँ।
लड़के ने माँगा, “पानी।”
मैंने उसके मुँह पर झुककर कहा, “पानी नहीं है बेटा, सबेरा होने दो।”
बच्चे ने गरदन हिलाकर कहा, “अच्छा।” उसके बाद वह आँखें मींचकर चुप हो गया।
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