उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
प्यास बुझाने को पानी नहीं था, पर मेरी आँखें अपने को फाड़-फाड़कर पानी बहाने लगीं। हाय रे हाय! सिर्फ मानव की सुकुमार हृदय-वृत्ति ही नहीं, अपनी सुदु:सह यातना के प्रति भी यह कैसी भयानक और असीम उदासीनता है! यही तो पशुता है! यह धैर्य-शक्ति नहीं, बल्कि जड़ता है! यह सहिष्णुता मानवता से बहुत नीचे के स्तर की वस्तु है!
हमारे डब्बे के और सभी लोग बेफिक्र सो रहे थे। कालिख-लगी हरीकेन के अत्यन्त मलिन प्रकाश में भी मैं स्पष्ट देखा रहा था कि माँ और लड़के दोनों की ही सारी देह अकड़ी जा रही है। मगर मेरे करने लायक अब और था ही क्या?
सामने काले आकाश का बहुत-सा हिस्सा सप्तर्षिमण्डल के तेज से चमक रहा है। उस तरह देखकर मैं वेदना, क्षोभ और निष्फल पश्चात्ताप से बार-बार शाप देने लगा, “आधुनिक सभ्यता के वाहन हो तुम लोग- तुम मर जाओ। मगर जिस निर्मम सभ्यता ने तुम लोगों को ऐसा बना डाला है, उसे तुम लोग हरगिज क्षमा न करना। अगर ढोना ही हो, तो तुम उसे ढोते-ढोते, खूब तेजी के साथ, रसातल तक पहुँचा दो।”
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सबेरे खबर मिली कि और भी दो जनें बीमार पड़े हैं। मैंने दवा दी, और जमादार ने साँइथिया खबर भेजी। आशा थी कि इस बार अधिकारियों का आसन डिगेगा।
नौ बजे के करीब लड़का मर गया। अच्छा ही हुआ। यही तो इनका जीवन है।
सामने के मैदान की पगडण्डी से दो भले आदमी छतरी लगाये जा रहे थे। मैंने उनके पास जाकर पूछा, “यहाँ से गाँव कितनी दूर है?”
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