उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
जो वृद्ध थे, उन्होंने सिर को जरा ऊँचा करके कहा, “वह रहा।”
मैंने पूछा, “वहाँ खाने-पीने की चीज कुछ मिलती है?”
दूसरे आदमी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, “मिलती नहीं कैसे! शरीफों का गाँव है, चावल-दाल, घी, तेल, तरकारी जो चाहिए, लीजिए। कहाँ से आ रहे हैं आप? आपका निवास? महाशय, आपकी...”
संक्षेप में उनका कुतूहल मिटाकर, सतीश भरद्वाज का नाम लेते ही वे रुष्ट हो उठे, वृद्ध ने कहा, “शराबी, बदमाश, जुआरी चोर!”
उसके साथी ने कहा, “रेल के आदमी और कितने अच्छे होंगे! कच्चा पैसा आता था काफी; इसी से न!
प्रत्युत्तर में सतीश की ताजी कब्र का टीला दिखलाते हुए मैंने कहा, “अब उसके विषय में आलोचना करना व्यर्थ है। कल वह मर गया, आदमियों की कमी से उसकी दाह-क्रिया नहीं की जा सकी, यहीं गाड़ देना पड़ा है।”
“कहते क्या हैं! ब्राह्मण की सन्तान को...”
“मगर उपाय क्या था?”
सुनकर दोनों ने क्षुब्ध होकर कहा कि, “शरीफों का गाँव है, जरा खबर मिलती तो कुछ-न-कुछ-कोई-न-कोई, उपाय हो ही जाता।” एक ने प्रश्न किया, “आप उनके कौन हैं?”
मैंने कहा, “कोई नहीं। मामूली परिचय था उनसे। इतना कहकर, संक्षेप में मैंने सारा किस्सा कह सुनाया और कहा कि दो दिन से कुछ खाया-पीया नहीं है, और उधर कुलियों में हैजा फैल रहा है, इसलिए उन्हें छोड़कर भी जाया नहीं जाता।”
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