उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मेरे गले में आलोचना करने लायक जोर न था, इसलिए सिर्फ चुपके से गरदन हिलाकर हाँ में हाँ मिलाता हुआ मैं मन-ही-मन हजारों बार कहने लगा-यही बात है, यही बात है, यही बात है! सिर्फ इसीलिए ही तैंतीस करोड़ नर-नारियों का कंठ दबाकर विदेशी शासन-तन्त्र भारत में बना हुआ है। सिर्फ एक इसी वजह से ही भारत के कोने-कोने और संघ-संघ में रेल-लाइन फैलाने की कोशिशें चल रही हैं। व्यापार के नाम पर धनिकों के धन-भण्डारों को विपुल से विपुलतर बना डालने की अविराम चेष्टा से कमजोरों का सुख गया, शान्ति गयी, रोटी गयी, धन गया- उनके जीने का रास्ता दिन पर दिन संकीर्ण होता जाता है, उनका बोझ असह्य होता जाता है- सत्य को तो किसी की दृष्टि से छिपाया नहीं जा सकता।
वृद्ध सज्जन ने मेरी इस मन की बात में ही मानो वाक्य जोड़कर कहा, “महाशय, बचपन में अपने ननिहाल में पला हूँ, पहले यहाँ बीस कोस के इर्द-गिर्द रेलगाड़ी नहीं थी, तब चीज़-बस्त इतनी सस्ती थी, और इतनी ज्यादा थी कि आपसे क्या बताऊँ! तब कोई चीज पैदा होती तो पाड़-पड़ोसी सभी को उसमें से कुछ-न-कुछ मिला करता था, और अब तो अकेला 'थोड़' और 'मोचा¹' तक-आँगन में लगे हुए शाक की दो पत्तियाँ भी, कोई किसी को नहीं देना चाहता। कहते हैं, रहने दो, साढ़े आठ बजे की गाड़ी से खरीददारों के हाथ बेच देने से दो पैसे तो भी आ जाँयगे। अब तो देने का नाम ही हो गया है फिजूलखर्ची। अरे साहब, कहाँ तक दुखड़ा रोया जाय, दु:ख की बात कहने में क्या है, पैसे बनाने के नशे में स्त्री-पुरुष सबके सब बिल्कुल ही नीच हो गये हैं। (¹ 'थोड़'=केले के पेड़ के काण्ड का भीतर का कोमल हिस्सा। 'मोचा'=केले की छोटी-छोटी फलियों का गोभी-सा ढका हुआ समूह। )
“और खुद भी क्या जी भर के कुछ भोग सकते हैं? सिर्फ आत्मीय-स्वजन और पड़ोसियों की ही बात नहीं, खुद अपने को भी सब तरफ से ठग-ठगकर रुपये पाने को ही मानो सबने अपना परमार्थ समझ लिया है।
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