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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719
आईएसबीएन :9781613014479

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


“इन सब अनिष्टों की जड़ है यह रेलगाड़ी। नसों की तरह देश की संघ-संघ में रेल के रास्ते अगर न घुस पाते और खाने-पीने की चीजें चालान करके पैसा कमाने की इतनी सहूलियतें न होतीं, और उस लोभ से आदमी अगर पागल न हुआ होता, तो इतनी बुरी दुर्दशा देश की न होती।”

रेल के विरुद्ध मेरी शिकायतें भी कम नहीं हैं। वास्तव में, जिस व्यवस्था से मनुष्य के जीवित रहने के लिए अत्यन्त आवश्यक खाद्य वस्तु प्रतिदिन छीनी जाकर शौकीनी कूड़े-करकट से सारा देश भर उठता है, उसके प्रति तीव्र घृणा भाव पैदा हुए बगैर रह ही नहीं सकता। खासकर गरीब आदमियों का जो दु:ख और जो हीनता मैं अपनी आँखों से देख आया हूँ, किसी भी युक्ति-तर्क से उसका उत्तर नहीं मिलता; फिर भी मैंने कहा, “जरूरत से ज्यादा बच रहने वाली चीजों को बरबाद न करके अगर बेचकर पैसा पैदा कर लिया जाए, तो क्या वह बहुत खराब बात होगी?”

उन सज्जन ने रंचमात्र ऊहापोह न करके नि:संकोच भाव से कहा, “हाँ, निहायत ही खराब बात है, खालिस अकल्याण है।”

उनका क्रोध और घृणा मेरी अपेक्षा बहुत ज्यादा प्रचण्ड थी। बोले, “आपकी यह बरबादी की धारणा विलायत की आमद है, धर्म स्थान भारतवर्ष की भूमि में इसका जन्म नहीं हुआ- यहाँ हो ही नहीं सकता। महाशयजी, सिर्फ अपनी आवश्यकता ही क्या एकमात्र सत्य है? जिसके पास नहीं है, उसकी जरूरत मिटाने का क्या कोई मूल्य ही नहीं दुनिया में? अगर उतना बाहर भेजकर रुपये इकट्ठे न किये जाँय तो वह बरबादी हुई, अपराध हुआ? यह निर्मम और निष्ठुर बात हम लोगों के मुँह से नहीं निकली, यह निकली है उनके मुँह से जो विदेश से आकर कमजोरों के मुँह का कौर छीनने के लिए अपने देशव्यापी जाल में फन्दे पर फन्दे डालते चले जा रहे हैं।”

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