उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
मैंने कहा, “देखिए, देश का अन्न विदेश ले जाने का मैं पक्षपाती नहीं हूँ; परन्तु, मैं पूछता हूँ कि एक के बचे हुए अन्न से दूसरे की भूख मिटती रहे, यह क्या अमंगल की बात है? इसके सिवा, वास्तव में विदेश में आकर तो वे जबरदस्ती छीन नहीं ले जाते? पैसे देकर ही तो खरीद ले जाते हैं?”
उन सज्जन ने तीखे कण्ठ से जवाब दिया, “हाँ, खरीदते तो हैं ही! वैसे ही, जैसे काँटे में खुराक लगाकर पानी में मछलियों को सादर निमन्त्रण देना।”
इस व्यंग्योक्ति का मैंने कुछ जवाब नहीं दिया। कारण, एक तो भूख-प्यास और थकावट के मारे वाद-विवाद की शक्ति नहीं थी; दूसरे, उनके वक्तव्य के साथ मूलत: मेरा कोई मतभेद भी न था।
परन्तु, मुझे चुप रहते देख वे अकस्मात् ही अत्यन्त उत्तेजित हो उठे, और मुझे ही प्रतिपक्षी समझकर अत्यन्त सरगर्मी के साथ कहने लगे, “महाशयजी, उनकी उद्दाम वणिक्बुद्धि के तत्व को ही आप सार सत्य समझ रहे हैं, परन्तु असल में, इतनी बड़ी असत् वस्तु संसार में दूसरी है ही नहीं। वे तो सिर्फ सोलह आने के बदले चौंसठ पैसे गिन लेना जानते हैं- सिर्फ देन-लेन की बात समझते हैं, और उन्होंने सीख रक्खा है सिर्फ भोग को ही मानव-जीवन का एकमात्र धर्म मानना। इसी से तो उनके दुनिया भर के संग्रह और संचय के व्यसन ने संसार के समस्त कल्याण को ढक रक्खा है। महाशयजी, यह रेल हुई; कलें हुईं; लोहे की बनी सड़के हुईं- यही तो सब पवित्र हैं- इन्हीं के भारी भार से ही तो दुनिया में कहीं भी गरीब के लिए दम लेने को जगह नहीं।”
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