उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“उन्हें आप लोग पहिचानते हैं क्या?”
“पहिचानते नहीं? खूब। उन्हें तो अपना ही आदमी कहा जा सकता हैं। इन्हीं के घर तो उनका मुख्य अवहै।” यह कहते हुए उन्होंने साथ के भले आदमी को दिखा दिया।
वृद्ध महाशय ने उसी वक्त संशोधन करते हुए कहा, “अव मत कहो नरेन, कहो, आश्रम। महाशय, मैं गरीब आदमी हूँ, जितनी बनती है, उतनी सेवा कर देता हूँ। मगर हाँ, हैं ऐसे जैसे विदुर के घर श्रीकृष्ण। मनुष्य तो नहीं, मनुष्य की आकृति में देवता हैं।”
मैंने पूछा, “फिलहाल वे हैं कितने रोज से आपके गाँव में?”
नरेन्द्र ने कहा, “करीब दो महीने हुए होंगे। इस तरफ न तो कोई डॉक्टर-वैद्य ही और न स्कूल। इसी के लिए वे इतना उद्योग कर रहे हैं। और फिर खुद भी एक भारी डॉक्टर हैं।”
अब साफ मेरी समझ में आ गया कि माजरा क्या है। ये अपने वही आनन्द हैं, साँइथिया स्टेशन पर भोजनादि कराकर राजलक्ष्मी जिन्हें परम आदर के साथ गंगामाटी ले आई थी। बिदाई की वे घड़ियाँ याद आ गयीं। राजलक्ष्मी कैसी रो रही थी। परिचय तो दो ही दिन का था, पर मालूम ऐसा होता कि मानो वह न जाने कितने भारी स्नेह की वस्तु को आँखों से ओझल करके किसी भयंकर विपत्ति के ग्रास की ओर बढ़ाए दे रही है- ऐसी ही उसकी व्यथा की। वापस आने के लिए उसकी वह कैसी व्याकुल विनय थी! परन्तु आनन्द है संन्यासी।- उसमें ममता भी नहीं, और मोह भी नहीं। नारी-हृदय की वेदना का रहस्य उसके लिए मिथ्या के सिवा और कुछ नहीं। इसी से इतने दिन इतने पास रहकर भी बिना प्रयोजन के दिखाई देने की जरूरत उसने पल-भर के लिए भी महसूस नहीं की, और भविष्य में भी शायद इस प्रयोजन का कारण न आएगा। परन्तु राजलक्ष्मी को यह बात मालूम होते ही कितनी गहरी चोट पहुँचेगी, सो मैं ही जानता हूँ!
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